तुम्हें याद है
अपना बचपन ?
जब शाम को लुक्का-छिप्पी खेलते थे हम
तुम आने की कह कर जाती
मैं इंतज़ार करता रह जाता
सबकी नज़रों से ओझल हो जाता
तुम्हें याद है ?
तुम्हारी स्टचाइयू कहने पर
मैं रुक जाता
वोहीं का वोहीं- वैसे का वैसा
फिर तुम्हारे लम्स से ही शुरू होता- नया दिन
तुम्हें याद है?
तुम्हारे कहने पर भी मैंने
नहीं लिया था
तुम्हारे होंठों का चुम्बन
यह कह कर कि
अभी इसमें वो सुर्खी नहीं आई है
अब जबकि
खेल खत्म हो चुका है
तुम्हारा मुझ पर कोई वश भी नहीं है
औ' तुम्हारे होंठों पर सुर्खी भी आ गयी है
क्या नहीं शुरू हो सकता कोई नया दिन???