थोड़ी फुर्सत मिली तो थी


फुर्सत मिली तो थी
सोचा थोड़ा ये कर लूं
थोड़ा वो कर लूं
सुस्ता लूं
किसी संगीत का आनंद ले लूं
किसी कोमल धुन को याद कर लूं
किसी मनोरम दृश्य को याद कर लूं
इस एकांत में,
कोई सीन खेल लूं
जिसमें दृश्य और परिस्थितियां फिर से वैसी ही हों
मगर अबकी हमारा व्यवहार और संवाद अलग हो
मन उस सिरे को फिर से वहां जोड़ता
मगर वो दृश्य बिना पूर्ण हुए छोड़ता

फुर्सत मिली तो थी कि अबकी हाथ ही बस पकड़े रहें उम्र भर
अबकी बात ही करते रहें जीवन भर
कि अबकी साथ ही चलते रहें ताउम्र
या फिर आंखें मूंदे दादी के संग गाल फुलाकर पीछे-पीछे पगडंडियों पर नाराज़ होकर पांव पटक-पटक कर ज़िद दोहराते घिसटने को याद ही कर लें
मैट्रिक परीक्षा के परिणाम वाले दिन को ही बुदबुदा लें

बहुत सारी चीज़ों की मिली हमें फुर्सत
इतनी फुर्सत भी मिली कि फुर्सत में भी फुर्सत को ही तलाशते रहे
सोचते रहे फुर्सत में कि अबकी पहली फुर्सत में अलां और फलां काम करेंगे
फिर इतने वस्तुनिष्ठ भी हुए कि फलां काम नहीं पहले अलां काम ही मात्र तसल्ली से करेंगे।

फुर्सत मिली लेकिन मन से बोझ न मिट सका।
अभी भी कई घंटे खाली फुर्सत से बैठता हूं
सोचता रहता हूं कि अबकी फुर्सत मिली तो मन के सारे बोझ उतारकर
स्लेट पर चाॅक से लिखेंगे - फ ु र स त
फिर फ, र, स और त पर एक क्षैतिज लकीर खींचेंगे
(और बोल कर पढ़ेंगे फ में लगी छोटी उ की मात्रा, छोटी र, दंती स और त)
लिख कर देखेंगे और देख कर मुस्कुराएंगे
मिलेगी फुर्सत तो फुर्सत को जीयेंगे

लेकिन शब्द वाली फुर्सत मिलती तो है
भाव वाले नहीं मिलते
हर चीज़ के अब दो मतलब हो गए हैं।

मतलब के भी दो
दो के भी दो
कुछ भी हो.

बोलो सुलोचना,





तीन बरिस की पाती
और जीवन भर की थाती
उन गानों का कब निकले मतलब
जो कलेजे चिपटा मुन्नू को गाती
बोलो सुलोचना
इत्ता मार क्योंकर खाती

     फिर जबकि सबकुछ पति को ही देना
     दिन भर कोयला फोड़ना, चूल्हा फूंकना, खांस-खांस कर भोजा भरना
     और बच्चों के लिए मर जाना
     जो तुमसे पूछे चूड़ी बारे में
     जो तुमसे पूछे साड़ी बारे में
     जो तुमसे पूछे मन्नत बारे में
     जो तुमसे पूछे मायके बारे में
     अपना दिल मचले तो करे ठुकुरसुहाती
     उज्जर आंखों वाली सुलोचना
      बोलो इत्ता मार क्योंकर खाती

भोली भाली पियारी सुलो
खसम को भूलो, जिद पर तुलो
कभी खुद को देखो, सबको भूलो
कानी उंगली जित्ता पाठ भी
याद नहीं तुम कर पाती
इत्ता मार क्योंकर खाती

    क्या सिलेबस तेरा बाप पढ़ाया
    कहां तूने जिनगी खपाया
    गोयठे की दीवार बन गई
    समय से पहले देह भई माटी
    बोलो सुलोचना
    इत्ता मार क्योंकर खाती

बारिश एक दुःख है


दो मकानों के बीच कोई हथकरघा रखा है
आसमान से उजले तागों के लच्छे गिरते हैं।
दीवार के कंधों पर बूंद गिरकर फूट जाती है

बारिश एक दुःख है
आलते का पौधा इसे नहीं समझता
घर में हुए अकाल मौत पर भी
बच्चे सा खिलखिलता रहता है
व्यस्क हो रहा तना
जीवन के दूसरे मायने भी समझता है
उम्रदराज कदम्ब से दर्द टपकता है।
लैम्पपोस्ट से अवसाद रिसता है।

सूखा ज़मीन जीवन सा है
जम रहा है चहबच्चों में पानी
दरकने लगता है कभी ठोस मानस पटल किसी के लिए
बारिश मनरंजन करती है।

अवरोधक के कारण हम जान पाते हैं बारिश का स्वर
वरना तो ये बेआवाज़ रोती है
इश्किया कविता में झंकार है बारिश
दर्द भरी कविता में अलंकार है

बारिश, बूंद-बूंद बरस जाने में बहुत पेशेवर है


मां जलाकर आया है बारिश
बेआबरू होकर बरसे ही जा रहा है।
मुंह खोले गुस्साए बरस रहा पानी
टपाटप गिर रहा, झमाझम नहीं
अपनी लय से बेखबर, बरसने की अदा से जुदा
आज बारिश, बूंद-बूंद बरस जाने में बहुत पेशेवर है

मिट्टी के बांध बह जाएंगे
नदी की धाराएं फूट पड़ेंगी
घुटने भर पानी, फसल कुछ इंतज़ार में खड़ी होगी
जैसे छठ अध्र्य में सुहागिनें मन्नत के लिए
उजाड़ कच्चे गांव फिर कहीं बसने की जगह देखेंगे
आसमान का टैंकर खाली हो जाएगा
कौवे निर्जन प्रदेश की घास में अपनी चोंच उल्टा उल्टा कर पोछेंगे
लेकिन नहीं पड़ेगा फर्क पत्थर की पीठ पर

नहीं पड़ेगा फर्क पत्थर की पीठ पर
रेशा रेशा फूट रहा है
छिन्न छिन्न उड़ रही पानी की बारूद
कोई मूर्तिकार छेनी लिए पत्थर तराशता हो जैसे
और हर कोंच पर बारीक बुरादे उड़ते हों

कहां जा रही बारिश अपना मायका छोड़कर
धरती बस एक अवरोधक लगता है
चुकंदर की तरह अपना ही हृदय दोनों हथेली में लिए सरे बाज़ार
खुद को निचोड़ रहा
मां जलाकर आया है बारिश, बेरहम।

त्योहार के दिन...


त्योहार आते हैं तो सुबह से मन का डोर कहीं खिंचा लगता है.
अन्दर ही अन्दर थोड़ी उदासी रहती है. 
जैसे मज़ार पर भीनी भीनी अगरबत्ती जलती रहती है.
कोई अन्दर से थपकी दे कर ध्यान अपनी तरफ खींचे रहता है. 
जैसे तंदूर की अंदरूनी दीवार पर लच्छे वाली रोटी ठोकी जाती हो 
और जो याद की आंच से जल भी ना पाती हो कि बाहर से कोई कील लगा वो ख्याल निकाल लेता हो

त्योहार आते हैं तो खटिया पर बैठे
गुटका चबाते मामा की  कही टूटी टूटी बातें याद आती है 
"तुम्हें मेहमाननवाज़ी नहीं आती"
जिनसे मिले पंद्रह साल होने को आये
और अब जिनके जाने की खबर आती है.

त्योहार आते हैं तो बाबा की याद आती है
झटपट लाठी टेके अड्डे से आते ही 
आड़े तिरछे चश्मे पोंछ, आवाज़ में बेचैनी भर पूछते
"बेईमान भी तो पटना नहीं चला गया ?"
और निरुत्तर लोग, आस पास की भारी हवा..... 
एक सिनेमा के दर्शक के तरह कि जब परिस्थितियां लगातार प्रतिकूल हों तो 
वो अबकी किरदार के लिए समर्थन मांगने लगता है

और याद आती है द्वार के पीछे बहुत सारी हरी दूब में अधलेटा सल्फास की शीशी .

त्योहार आते ही छोटे चाचा नंगी पीठ पर ढलकते पसीने की धार याद आती है
मेरी माँ की  नवेली ब्याही सहेली बन कहते हैं "भौजी, कहएं बड़का भैया के,  नय भेजय लय वहां"
कि पिता जी लगातार डांटे जा रहे हैं
और साल लगते ना लगते पिता जी का मटका बदलना याद आता है. 

त्योहार आते ही गालों पर मोटे तिल वाली दादी याद आती है.
सब कुछ सुन्न हो जाने पर भी जिसकी स्नायु जीवित है.
बीडी के धुएं सा जिनका हाथ महकता है. 
दरार पड़े पेडे का स्वाद जीभ पर आता है. 

बदन मेरा एक देश है.
और त्योहार स्वतंत्रता दिवस
घर के लोग वो बलिदानी हैं 
जिनकी याद में सर गर्वित हो झुका रहता है.

त्योहार शरीर और मन बांटने वाले दिन होते हैं.
उनकी याद हमें मीठे मीठे तकलीफ देती रहती है 
हम कोई चीथड़े हो जाते हैं जिसका दोनों सिरा खोजकर 
दर्जी उसपर अपने सिलाई मशीन का स्टील लोक करता है और
ताबड़तोड़ सूइयों के प्रहार से बिंध देता है.

बाथरूम में बेसिन के नीचे एक टेढ़े मुंह वाला नल लटका है











बाथरूम में बेसिन के नीचे एक टेढ़े मुंह वाला नल लटका है 
तोंद निकाले सुस्ताया वह प्रेगनेंट लेडी सा चलता है।

मूड करे तो फुहारे दे ज्यों महंगे होटल वाला नल देता है
लेकिन मुसलमां वूजू को बैठे तो पलटवार कर दर्द से बेकल कर देता है।

नकचढ़ा है, कंठ में जैसे ग्लानि फंस कर लटक गया है
पहले थोड़ी जगह मांग कर फिर अजगर सा पसर गया है।

पानी लेता टंकी से मगर सीलन दूर तक फैलाता है
नमक नमक का जाप कर इसने चमड़े को गलाया है।

हैंडल उसके बड़े नुकीले, ज्यों सरहद पर की कांटों के बाड़ 
चिकना, पतला कुरते को खुद में फांस कर देता उसको फाड़।

डर के मारे मेरा बेटा अक्सर दरवाज़े पर शू शू कर देता है।
हलक भींगा कर कहता है - पापा यह नल मुझको 
मसूड़ों में तंबाकू दबाए शातिर जैसा लगता है।
.....................................(सिर को पीछे करता है)
अम्म... अम्मम.. आंss, आंsss क्या था! क्या था!!
हां! यह नल मुझको - नरेंदर मोदी लगता है।

विचलन



दुनिया हमारे लिए यातना गृह थी. हमें जो यहाँ कर रहे हैं वो यहाँ करना ही नहीं था. कहीं से किसी विचलन में इस अक्ष पर हम आ कर घूमने लगे. आदमी इसी विचलन की पैदाइश है. जो यहाँ आकर जितनी विचलन का शिकार होता है और यह स्थित उसे जो बनाती है उससे उसकी मनुष्यता आंकी जा रही है. हम थे तो हमें मिटाने और तोड़ने को तुम आतुर थे. अब हम नहीं हैं तो तुमने सर पीटने का एक उपक्रम ढूंढ लिया है. हमें तुम्हारे सामने कीमती नहीं समझा  गया. फिर हमने बखुशी काँटों का ताज पहन लिया. अब तक दिल दुख ना था मगर अब जब तुम्हें मैं प्रतिस्पर्धी नहीं लग रहा हूँ तो तुम मुझमें खुदा खोज रहे हो. इसका मतलब अगर खुदा हमारे बीच होता तो वो खुदा नहीं होता. हम उसको भी मारने के उपाय ढूंढते और ढूँढा भी.

हम कोई किसी के दुश्मन ना थे, अपनी उधेड़बुन में तलवे घसीटते समय काटा और मरने से ठीक पहले ज्ञात हुआ कि हम कोई किसी के दुश्मन ना थे बस एक दस्तावेज़ थे जिनसे आदमीयत धनी होनी थी.

हमें पढ़ो कि हम अब तक अनपढ़े हैं.
हमें पढ़ो कि हम आर्त स्वर में तुम्हें ही प्रार्थानों में पुकारते हैं.
हमें पढ़ो कि नाराजगी के बावजूद भी उम्मीद तुम्हीं से है.
हमें पढ़ो कि इंसानियत का कोई और विकल्प नहीं है.
जब तक तुम लड़ना सीख सको 
यूँ सहेजने से कुछ नहीं होना 
तुम कला कि कद्रदानी नहीं बस मेजबानी कर रहे हो 
जिसकी फेहरिस्त में क्या दिखना, क्या चखाना ये लिखा है.
क्या फायदा ऐसा बड़ा होने का?
भीड़  देखकर तुम माँ का आँचल छोड़ देते हो
पढो कि अभी सहर होनी बांकी है 
पढ़ो कि किसी वक्त पर लायब्रेरी अटी पड़ी होने कि बावजूद
तुम्हारा धीरज और अर्जित ज्ञान चूक जाता है.

मगर अब हमें फाड़ कर फिर से पढो.
(डी. पी. एस. १:४७':५०'' )