त्योहार के दिन...


त्योहार आते हैं तो सुबह से मन का डोर कहीं खिंचा लगता है.
अन्दर ही अन्दर थोड़ी उदासी रहती है. 
जैसे मज़ार पर भीनी भीनी अगरबत्ती जलती रहती है.
कोई अन्दर से थपकी दे कर ध्यान अपनी तरफ खींचे रहता है. 
जैसे तंदूर की अंदरूनी दीवार पर लच्छे वाली रोटी ठोकी जाती हो 
और जो याद की आंच से जल भी ना पाती हो कि बाहर से कोई कील लगा वो ख्याल निकाल लेता हो

त्योहार आते हैं तो खटिया पर बैठे
गुटका चबाते मामा की  कही टूटी टूटी बातें याद आती है 
"तुम्हें मेहमाननवाज़ी नहीं आती"
जिनसे मिले पंद्रह साल होने को आये
और अब जिनके जाने की खबर आती है.

त्योहार आते हैं तो बाबा की याद आती है
झटपट लाठी टेके अड्डे से आते ही 
आड़े तिरछे चश्मे पोंछ, आवाज़ में बेचैनी भर पूछते
"बेईमान भी तो पटना नहीं चला गया ?"
और निरुत्तर लोग, आस पास की भारी हवा..... 
एक सिनेमा के दर्शक के तरह कि जब परिस्थितियां लगातार प्रतिकूल हों तो 
वो अबकी किरदार के लिए समर्थन मांगने लगता है

और याद आती है द्वार के पीछे बहुत सारी हरी दूब में अधलेटा सल्फास की शीशी .

त्योहार आते ही छोटे चाचा नंगी पीठ पर ढलकते पसीने की धार याद आती है
मेरी माँ की  नवेली ब्याही सहेली बन कहते हैं "भौजी, कहएं बड़का भैया के,  नय भेजय लय वहां"
कि पिता जी लगातार डांटे जा रहे हैं
और साल लगते ना लगते पिता जी का मटका बदलना याद आता है. 

त्योहार आते ही गालों पर मोटे तिल वाली दादी याद आती है.
सब कुछ सुन्न हो जाने पर भी जिसकी स्नायु जीवित है.
बीडी के धुएं सा जिनका हाथ महकता है. 
दरार पड़े पेडे का स्वाद जीभ पर आता है. 

बदन मेरा एक देश है.
और त्योहार स्वतंत्रता दिवस
घर के लोग वो बलिदानी हैं 
जिनकी याद में सर गर्वित हो झुका रहता है.

त्योहार शरीर और मन बांटने वाले दिन होते हैं.
उनकी याद हमें मीठे मीठे तकलीफ देती रहती है 
हम कोई चीथड़े हो जाते हैं जिसका दोनों सिरा खोजकर 
दर्जी उसपर अपने सिलाई मशीन का स्टील लोक करता है और
ताबड़तोड़ सूइयों के प्रहार से बिंध देता है.

बाथरूम में बेसिन के नीचे एक टेढ़े मुंह वाला नल लटका है











बाथरूम में बेसिन के नीचे एक टेढ़े मुंह वाला नल लटका है 
तोंद निकाले सुस्ताया वह प्रेगनेंट लेडी सा चलता है।

मूड करे तो फुहारे दे ज्यों महंगे होटल वाला नल देता है
लेकिन मुसलमां वूजू को बैठे तो पलटवार कर दर्द से बेकल कर देता है।

नकचढ़ा है, कंठ में जैसे ग्लानि फंस कर लटक गया है
पहले थोड़ी जगह मांग कर फिर अजगर सा पसर गया है।

पानी लेता टंकी से मगर सीलन दूर तक फैलाता है
नमक नमक का जाप कर इसने चमड़े को गलाया है।

हैंडल उसके बड़े नुकीले, ज्यों सरहद पर की कांटों के बाड़ 
चिकना, पतला कुरते को खुद में फांस कर देता उसको फाड़।

डर के मारे मेरा बेटा अक्सर दरवाज़े पर शू शू कर देता है।
हलक भींगा कर कहता है - पापा यह नल मुझको 
मसूड़ों में तंबाकू दबाए शातिर जैसा लगता है।
.....................................(सिर को पीछे करता है)
अम्म... अम्मम.. आंss, आंsss क्या था! क्या था!!
हां! यह नल मुझको - नरेंदर मोदी लगता है।

विचलन



दुनिया हमारे लिए यातना गृह थी. हमें जो यहाँ कर रहे हैं वो यहाँ करना ही नहीं था. कहीं से किसी विचलन में इस अक्ष पर हम आ कर घूमने लगे. आदमी इसी विचलन की पैदाइश है. जो यहाँ आकर जितनी विचलन का शिकार होता है और यह स्थित उसे जो बनाती है उससे उसकी मनुष्यता आंकी जा रही है. हम थे तो हमें मिटाने और तोड़ने को तुम आतुर थे. अब हम नहीं हैं तो तुमने सर पीटने का एक उपक्रम ढूंढ लिया है. हमें तुम्हारे सामने कीमती नहीं समझा  गया. फिर हमने बखुशी काँटों का ताज पहन लिया. अब तक दिल दुख ना था मगर अब जब तुम्हें मैं प्रतिस्पर्धी नहीं लग रहा हूँ तो तुम मुझमें खुदा खोज रहे हो. इसका मतलब अगर खुदा हमारे बीच होता तो वो खुदा नहीं होता. हम उसको भी मारने के उपाय ढूंढते और ढूँढा भी.

हम कोई किसी के दुश्मन ना थे, अपनी उधेड़बुन में तलवे घसीटते समय काटा और मरने से ठीक पहले ज्ञात हुआ कि हम कोई किसी के दुश्मन ना थे बस एक दस्तावेज़ थे जिनसे आदमीयत धनी होनी थी.

हमें पढ़ो कि हम अब तक अनपढ़े हैं.
हमें पढ़ो कि हम आर्त स्वर में तुम्हें ही प्रार्थानों में पुकारते हैं.
हमें पढ़ो कि नाराजगी के बावजूद भी उम्मीद तुम्हीं से है.
हमें पढ़ो कि इंसानियत का कोई और विकल्प नहीं है.
जब तक तुम लड़ना सीख सको 
यूँ सहेजने से कुछ नहीं होना 
तुम कला कि कद्रदानी नहीं बस मेजबानी कर रहे हो 
जिसकी फेहरिस्त में क्या दिखना, क्या चखाना ये लिखा है.
क्या फायदा ऐसा बड़ा होने का?
भीड़  देखकर तुम माँ का आँचल छोड़ देते हो
पढो कि अभी सहर होनी बांकी है 
पढ़ो कि किसी वक्त पर लायब्रेरी अटी पड़ी होने कि बावजूद
तुम्हारा धीरज और अर्जित ज्ञान चूक जाता है.

मगर अब हमें फाड़ कर फिर से पढो.
(डी. पी. एस. १:४७':५०'' )

कान एक विशाल समुद्र तट है


मौन बोलता है चुप चुप
रात्रि के इस नीरव अन्धकार में
रात का अँधेरा नदी की मानिंद बहा जाता है.
रात की नायिका भरे बाहों वाला ब्लाउज पहन
दोनों आँखों पर कोहनी धरे रात भी रोती है चुप चुप
आँखों के कोर से काजल बह चली है धीमे धीमे
ब्लाउज पर जहाँ तहां उमेठे हुए दाग लगे हैं.

तारे रात भर बोलते हैं चुप चुप
पाइप से पानी टंकी में उतरता रहता है.
मुंडेरों पर झपकी लेते कबूतरों की नींद अपनी ऊँघ में है.
तलवे से झड़ते हैं थोड़ी सी बचे हुए उड़ान
मुठ्ठी से गिरती है इस समय चुप चुप दृश्य हवा
बातूनी तारे रात भर मुखर होकर बोलते हैं चुप चुप
दूसरा "हूं" "हाँ" करता है
जैसे मुंह में भूजा फांक कर बैठा हो.
तारे का टिमटिमाना भूजे को दाँतों से दरना है
कुर्र कुरर्र ...

केले के नए पत्ते नीम बेहोशी में हवा करते हैं
जैसे बथानों में नीद में खलल पड़ी हो गाय की
और टालने को उसने अपने कान के पंखे पटके हैं.
टेबल लैम्प की रौशनी छनती है दीवार के उस पार भी
चुप चुप प्रतीक्षा करो
एक ज़रा कुछ चुप्पी के अंतराल में कोई रील चल पड़ेगी.

चुप हुए तो बहुत बोलने लगे हम.
दिन बहुत बोलता है रात के चुप होने के लिए
जीवन बहुत बोलता है मृत्यु के लिए.
उजाले को पढने के लिए अँधेरे का पाठ चाहिए.

गमले की मिटटी खींच रही है आसपास का पानी चुप चुप
जैसे माँ और बच्चे नींद की जुगलबंदी के बीच
खींचना शुरू कर देता है बच्चा दुधियाये स्तन से दूध
और माँ बनती है उसके लिए आरामदायक आसन.

बालियों में पकता है दाना चुप चुप
डंका बजा कर नहीं आता ज्ञान
सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलने की शर्त है.
बड़ा सा उपन्यास कहता एक शब्द "मानवीयता"
बहुत संयम के बाद भी प्यार में चुप चुप ही शोर करता है आता है स्पर्श
और जागने में चुप चुप पैर का अंगूठा चूसता सोता है सपना.

बदन तंदूर है



तुम मेरी बाहों में हो, कितना कुछ हो आया है 
पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन करती रुक गयी है. 
जैसे बरसों के किसी घाव से निकल आये ढेर सारा मवाद
मुझे बताओ कि आग बाहर लगी है
या तुम्हारा बदन तंदूर है.

तुम्हारी ताम्बाई पीठ; एक आईना
मैंने बारहा लपटों को उठते यहाँ देखा है.
तुम्हारा जिस्म चाय की एक केतली 
सुराहीदार गले को धुंआ उलगते देखा है. 
इन तरह देखने में कोई  बर्फ की भारी सिल्ली टूटता रहता है मुझमें लगातार.

तुम्हारी कातर नज़रों में मिले प्रेम की बेहिसाब मांग 
अर्थव्यवस्था के मांग और आपूर्ति के नियम से उलट हैं. 
मैं बस हर बार देह से कर रहा उसे पूरा
मैदान में खुले सीमेंट की बोरी सा जमता रहा हूँ मैं.

मुझे बताओ मैं कैसे हो गया ख़राब !
जब खुद से ही बांधे जाएँ अपने हाथ और तकिये का एक कोना लगभग चबाते हुए रोयें रात भर
क्या करे कोई तुम मिलो तो बाहों में भर कर चूमें भी नहीं ?

कोई फर्क नहीं बदन और दुनियावी चीजों में 
कारखाने में काम कर जाना कि
भावुक लौह अयस्क से निर्मित मेरे शरीर के कारखाने में बनते रहते  है तमाम अवयव 
रंदा पड़ा नाज़ुक गला; चिमनी,
उगलता; काला धुंआ,
तुम्हारे नितम्ब और घुटने के बीच का हिस्सा: लाईटर की दिपदिपाती लौ.
मुझे सिगार बना कर फूंक डालो
रजाई में गठ्ठर बन आये रूई की चिंदी उड़ा दो
मजहबी टोपी के रंग उड़ा दो.

एक गर्म गुज़रता लावा सा तारकोल, बहता अन्दर 
तुम मरम्मत मांगती सड़क, मैं जालीदार बर्तन
अपने वजूद  को ही कर तार तार हों छलनी 
तुम पर बरसता रहूँ मैं.
लपक कर चूमना, चूमना, चूमना. 
इसे कविता में यूँ पढ़ना कि चूमना, घूमना, चूमना जैसे 
प्रेमी करे दशों दिशाओं से आलिंगन.

उतार दो लिबास अपना 
चूल्हे को बिना जलाए नहीं पकाई जा सकती रोटी.
प्रेम में पेट का भरना मजबूरी नहीं
वार देना खुद को, मिलाना फफूंद लगे शराब में, नाचना तांडव, मिटाना पीठ के छाले, बनना जोगी, चढ़ाना हथकरघे पर.

पका हुआ प्रेम जैसे धुएं में सना भुट्टे का पुष्ट दाना

किसी पक्षी के रंगीन चोंच सा वितान लिए,
किसी खुद्दार की नाक, 
तमाम तरह की पर्वत श्रेणियों के बीच अचल, गंभीर पर्वत शिखर
धूप पड़ती बालुई धरती पर मरती घास के बीच से जाता अलसाया रस्ता जैसे 
मेड़ पर तकिया लगाए बारह हाथ का निडर, धामन सांप.


लॉन में अशोक का पेड़ जिसकी ऊंची जाती फुनगी,
यूकिलिप्टस के तने सी सादी कागज़ी जंघा, 
लंबी, ठंडी, पतली उंगलियों के बीच गोरी मरमरी कलाई। लकीरें ग़म में गीली
आँखों में कई पगडंडियां। एक रस्ता चरवाहा का, एक रस्ता कव्वाल का घर
होंठ यों आपस में लिपटे जैसे नाग-नागिन सहवास में रत
बनावट ऐसे काढ़े हुए कि मेरे नाम में ‘ग‘ के उच्चारण पर की स्टिल पिक्चर
एक हड्डी की नाजुक चोट से टूटकर बने गले और कंधे 
एक हरी लकड़ी टूटन के बाद भी अपने छाल से जुड़ी हुई
जिसके अंर्तवस्त्र हाथ में हो तो साँसें जंगली न हो प्राणायाम चले
भीड़ में होती हुई भीड़ से निकलती लगे.

प्रेम करता हुआ आदमी खोता जाता है मानवीय देह
उम्रदराज़ महिला से प्रेम करना जैसे 
छिलते पेंसिल से नोक का निकलना है 
स्लेटी रंग में सूख चुके आंसू सा चमकता उसका उदास नाम लिखना है
उम्रदराज़ महिला से प्रेम, समाधि में होना है।

आंगन में एक तेजपत्ते का पेड़ रहता था

आंगन में एक  तेजपत्ते का पेड़ रहता था। 
तेज़ी से अपने फर उगाती गौरेये सा
नीले गोटेदार कसा स्कार्फ पहन, कटोरी से पानी चुगते, 
दाना खाते कुबेरा बीट करता कबूतर सा 
सब हलचलों के बीच अपने पत्तों का पंख गिराता था।
आंगन में एक  तेजपत्ते का पेड़ रहता था।

जब भी हमारी गेंद बिना पलस्तर छाती भर बाउंड्री पार जाती
उसके कोटर पर पैर का अंगूठा फंसा ऊपर चढ़ते जाते 
हथेलियों को सहारे खातिर जिसके तने में कई गांठें थीं 
हम सीधे होते जाते और बाउंड्री का गिरेबां पकड़ लेते
उस वक्त मुझे ऐसा ही लगता यह पेड़ बाढ़ग्रस्त इलाके की बस्ती का कोई रहवैया है 
जिसके बच्चे स्कूल जाने को हैं 
यह बाप अपना कद छोटा कर नीचे बैठ 
अपने कंधे पर बच्चों को चढ़ने का इशारा करता है 
और फिर उसके नन्हें कदमों के अंतराल का ख्याल कर 
पहले अपने घुटने को सीढ़ी का पहला पायदान बनाने को कहता है।

अक्सर जब पुरबाई चलती सारा घर तेजपत्तों की हल्की गंध से महकने लगता
मुझे याद नहीं आता हमने कभी तेज़पत्ता बाज़ार से खरीदा हो। 
मिश्रा अंकल सुबह दातुन करते आते और 
हालचाल पूछते पूछते आठ-दस पत्तियां लेते जाते
शरमाइन सत्यनारायण कथा का न्यौता देती और बातों बातों में ले जाती
फलाने की बेटी देखने रिश्तेदारों के लिए चाय में 
स्वाद के लिए भी पत्तियां तोड़ी जातीं।

मुझे याद है पहली बार बबली से मिलने जाते समय 
मैंने दो पत्तियां इसलिए चबायी थी कि 
यह माउथफ्रेशनर का काम करता है।
और जिस पत्ते को उल्टा कर पहली बार उसके 
गाल से कान के पीछे तक फिराया था 
वो आज भी डायरी में रखा है।

पम्मी कभी वन की राजकुमारी बनती तो 
अपने हेयरबैंड में इसका एक पत्ता सीधा खड़ा कर दबा लेती
इस तरह तेज़पत्ता लापरवाही से हमारी जिंदगी में शामिल था।
उसकी याद आते ही मेरा अतीत उसकी हल्की नशीली खूशबू से महक उठता है।
उसकी सुगंध के साथ ही ठंडे पड़ गए सारे चेहरों से धुंआं उठने लगता है।
याद की पतीली उन धुंओं से गर्म हुई जाती है।
मैं अत्यधिक दबाव में आ प्रेशर कुकर सा घनीभूत हो कविता लिखने लगता हूँ।
और जब नहीं संभाल पाता मेरा देहरूपी बर्तन यह दबाव भी तो 
आँखों से पानी के बुलबुले निकलने लगते हैं।
हम भाई बहन के छत से अपने टूथपेस्ट मिले थूक को 
दूर तक फेंकने के खेल का गवाह यह पेड़ रहता था 
आंगन में एक  तेजपत्ते का पेड़ रहता था।

आज जब मकान मालकिन ने बातों बातों में यह कहा
उसने जाना ही नहीं कि तेज़पत्ते का पेड़ होता है! 
तो मुझे यह एक शहर की विफलता लगती है।

बचो, कहानीकारों!
ये कहने के लिए कि यहाँ आदमी रहता था
आंगन में एक  तेजपत्ते का पेड़ रहता था।

हुआ करे लिबास हम तो जिस्म देख लेते हैं


रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं 
शाम को बारिश हुई है और आसमान धुला धुला है
हवा मीठे रोमांस की खुशबू सी महक रही है. 
चाँद काले छींट वाले बादलों के परदे टांग 
अपने शिविर में आराम को जा रहा है.
आज उसके मलमल के कुरते का कोई बटन नहीं लगा. 
और उसके सीने से दूधिया चांदनी बरस रही है.

तुम्हारी खिड़कियाँ और बाल दोनों खुले हैं.
कमरे में कुमार शानू "ये जो थोड़े से हैं पैसे" गा रहा है  
और मेरे कमरे में गूंजे अलका याग्निक की तीखी आवाज़ "गली में आज चाँद निकला".
बालकनी में दोनों गीत एक दुसरे में घुल एक डूयेट बन जाता है. 

दोनों आवाजों की शक्लें उभरती हैं. 
हम मिल नहीं सकते लेकिन वे गीत हमें मिला रहे हैं
लब पर जो चाशनी सी लरजती हुई बात है, दोनों कह रहे हैं. 
जैसे बरसों बाद गाँव के घर जाओ 
और बिजली जाने पर छत पर खेले जा रहे अंतराक्षरी में 
दिन भर जिसे चोर नज़र से देखते हों 
उस पड़ोस की लड़की को लक्ष्य कर अंतरा गाया जाए.

"माना अनजान है तू मेरे वास्ते 
माना अनजान हूँ मैं तेरे वास्ते 
तू मुझको जान ले मैं तुझको जान लूँ 
आ दिल के पास आ इस दिल के रास्ते"

वो मद्धम स्वर में गुनगुनाती हुई नदी सी आ मिले 

"जो तेरा हाल है वो मेरा हाल  है 
इस हाल से हाल मिला.... "

तुम्हें मीर पढने को दिल हो आया है.
मुझे याद आ रही है कीट्स की कोई टूटी पंक्ति
हम दोनों अपने अपने कमरों में मुस्कराहट लिए जल्दी जल्दी किताब ढूंढ रहे हैं. 
मेरा उत्तर तुम हो 
तुम्हारा जवाब मैं हूँ.

मैं हवा में तुम्हें छूने के अपने अरमान भेजता हूँ.
वो गर्म हवा तुम्हें छू कर ठंडी होकर लौटती है.
कैसे प्यार को रोकेगा कोई. 
कि जिससे मिलना मना है 
उसके स्पर्श से नहा रहा हूँ मैं.
तुम्हारे हुस्न का झीना चादर पड़ा है मुझ पर 
अल्हड़ से मनी प्लांट के एक पत्ते को छूता हूँ. 
कसे हुए उन अंगो में इनकार झूलता है.
बीच जून में सिहर उठा हूँ मैं.

सुनो ईश्वर! मैं किसी भी उम्र में हो सकता हूँ आवारा.
सुनो समाज! मैं बुढापे में भी कर लूँगा निर्बाध प्रेम
सुनो सत्तासीनों! ग्वांतानामो की बेड़ियों में जकड़ो या जेल में डालो 
मैं जियूँगा अपनी ही तरह 
देख ही लूँगा सपने 
चखा ही दूंगा आज़ादी का स्वाद.

आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.

आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.

बिस्तर पर पड़ा होता हूँ मगर सुदूर अंचल की यात्रा हो जाती है
मन हिचकोले खाता है और लगता है 
उबड़-खाबड़ सड़क पर किसी बैलगाड़ी में सवार हूँ
पहिये रास्तों की गहराई से लड़ रहे हैं.
कुछ महिलायें जिस पर लोकगीत गा रही हैं
जैसे पानी भरे घड़े को पानी में डूबोया जाता है
आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.

आबिदा की आवाज़ मुझे
अपने ही परिवार में इक बिन ब्याही मौसी की याद दिलाती है
जो अपने धड़ को रखती है इस तरह चाक-पैबंद कि
कई बार उसके मर्द होने का अंदेशा होता है. 
उसके छाती से दूध नहीं उतरने का दर्द 
आबिदा की आवाज़ में ढल कर उतर आया है.

मेरे तकलीफों की आलमारी में 
कई दर्द बिना इस्त्री किये रखे होने से
ज्यादा जगह घेरते हैं 
आबिदा की आवाज़ सबको मुलायम तहदार बना सलीके से लगा देती है
मेरे अन्दर और दर्द भरने की जगह बनती जाती है. 

उनकी आवाज़ मन के सूने रेगिस्तान में
हल का फाल धसेड़ते हुए जाती है
एक अमिट लकीर बन उनकी आवाज़
आपाधापी में एक लंगड़ डालती है.

दिल टूटने की आवाज़ जो मैं भूल गया था
उनकी आवाज़ उसकी छायाप्रति है
आबिदा मिलन में छुपे विरह का गीत गाती है
सीले पड़े माचिस को इश्क से सुलगाती हैं
उनकी हूक सुन घर छोड़ लापता होने का मन होता है 
चिठ्ठियों पर पता लिखते लिखते जैसे कोई खो जाता है
आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.

निजता से परे बहती शाश्वत नदी


सीखचों में बाँध दो मुझको 
या भेज दो दूसरी दुनिया में
ख़त्म नहीं होऊंगा मैं 
मुझे अमरता का वरदान है.

आलते के पत्तों पर रख दो या 
फिर मेरी घडी फोड़ दो
तुम्हारे मन पर रेंग जाऊँगा मैं या 
फिर मेरे होने की सूई तुम्हारे वजूद के डायल में घूमती रहेगी

रंग बनाओगे मुझे?
या चिता पर जलाओगे
सूई की तरह तुम्हारे शिराओं से बिंध जाऊँगा.

नहीं रहूँगा मैं तो विभिन्न किरणों में बँट जाऊँगा
कपास के रेशे में मिलूँगा
गेंहूं से उसके छिलके के छिटकन में,
किसी दूर देस की औरत के कतरन में 
और जब कहीं नहीं दिखूंगा तो सबके जीवन में मिलूँगा.
मुझे जितने कोष्ठक में बंद करोगे
मैं लम्बे समीकरणों में सत्यापित होऊंगा 
तुम्हारे देह में नेफ्रोन हूँ मैं
तुम्हारे देश को ढँक लूँगा.

सभ्यता का पवित्र संस्कार हूँ.
तुम्हारे ज्ञान की जिज्ञासा का मूल जानकार हूँ मैं.
निवेदन के बाद भी जिसका आग्रह बचा रहता है
बहुत सख्तजान, एक चमत्कृत करता तलवार हूँ मैं.

बहुत सारे अच्छे गानों का पिक्चराइजेशन बुरा है।

सूरत दिखाने के लिए आईने के पार कोई अवरोधक चाहिए। मसलन बात बहुत छोटी सी है कि बॉस का फोन पर फील्ड में काम करते हुए डांटना जैसे स्टूडियो में बैठे एंकर से रिपोर्टर को मिली फटकार। यकायक साढ़े सात रूपए की बढ़ोतरी से पेट्रोल का और ज्वलनशील हो जाना और किसी निम्नमध्यमवर्गीय का अपना मोपेड फूंक देना। अर्थव्यवस्था के कच्चे जानकार का इस खबर को सुन दिली तसल्ली से भर जाना जैसे वैष्णव का मनाना कि लहसन, प्याज और गोश्त के दाम आसमान छूए। इसी क्रम में शराब को हाथ न लगाने वाले गुट का इस हसरत को पालना कि आगामी फरवरी मार्च में वित्त मंत्री का शराब, सिगरेट, पान मसाला और तम्बाकू में कम से कम पचास फीसदी का उछाल।

दस हज़ार अलय बिंबों वाली किताब में एक पैराग्राफ ऐसा जिससे वो प्रिय हो जाए, साढ़े चार घंटे की ब्लू फिल्म वाली डीवीडी में नायिका की एक विशेष भाव भंगिमा जो शरीर और सौंदर्यशास्त्र की कला सकारथ कर जाए। बेहद साधारण उपन्यास में एक पन्ने में बाप का गीली राख लगी देगची का चूल्हे पर चढ़े चावल का अदहन जांचना। बदतमीज़ लहजे में कुछ आत्मीय आवाज़ों की कौंध, लठ्ठमार भाषा में एकआध पंक्ति में प्रेम का अधिकार यूं कि दिल रीझ आए जैसे बहुत सारे मानसिक प्रदूषण के बीच भाषणों में भारत एक महान और विशाल देश है की पहली पंक्ति।

आगामी इतवार पालिका और जनपथ पर खरीदारी के मूड में निकलना हो तो रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों का चुपचाप संसद मार्ग थाने पर उतरना। तभी बायीं ओर चीनी मिल के मजदूरों का बकाया भुगतान की मांग लिए पृथ्वी के आठवें महाद्वीप की ओर बढ़ना, इतवार के सिनेमा दर्शक के लिए यह एक बालकनी का टिकट है।

वहीं, बहुत सारे पिटे हुए फिल्मों का निर्माण सहृदयता से हुआ।

टू व्होम इट मे कंसर्न


देखा गया है कई बार ऐसा भी कि सत्तासीन पार्टी के गुणगान के एवज में अखबारी कागज़ एक उपहार है।

और कागज़ बचाने की मुहिम जब शुरू हुई तब तक संपादकों को प्रिंट आउट के बाद ही उन्हें गलतियां नज़र आने की बीमारी लग चुकी थी। अपनी सरकारी कुर्सी में धंसे संपादक महोदय का दिमाग खबरों को कागज़ बचाने की सारी कवायद तब भी बेकार जा रही है जब समाचार कक्ष से अगली सुबह सफाई के दौरान गैलनो गैलन कागज़, प्लास्टिक कप में बची चाय, पान और तम्बाकू की पीक में लिथड़े निकाले जा रहे हैं। और उनमें कूड़ेदान में पहले तह किए गए फिर ठूंसे गए  कागज़ अगले दिन जब जबरन निकाले जाते हैं तो उनकी शक्ल जंगल में किसी विलुप्त होती प्रजाति से मेल खाती सी लगती है। 

थाने या मेट्रो या जेल या बैंक या काॅलेज की दीवार में ‘जिसपर‘ तथा जिसकी गुमशुदगी का इश्तेहार अभी तक नहीं चिपका है। कि शहरों में मुश्किल से पिशाब करने की जगह तलाशने के बाद पिशाब निकलते रहने और उससे उपजते रिलेक्सेशन के बीच हम दे पाते हैं उन पर ध्यान।

कूड़ेदान में कभी कभी डर से भी डाल दी जाती है बर्बाद हो चुके कागज़ कि वरिष्ठ संपादक देखेंगे तो बहुत संभव है कि नहीं लग सकती है कैजुअल की अगली ड्यूटी या नहीं गिने जा सकते हैं अगली चाय वाले दोस्तों की जमात में या फिर नहीं ही मुस्कुराएगा वो संपादक अगली मुलाकात पर या ड्यूटी कक्ष में फिर से साथ काम करने की अनुशंसा नहीं होगी। इनते सारे डर के बीच भी कई बार चुपके से सुपर्द-ए- ख़ाक हो जाता है कागज़। हालांकि यह तथ्य बहस से परे है कि एडिटर इन चार्ज स्वयं इतने या इतने के दोगुने कागज़ खर्च कर आ रहे हैं।

नाक मुंह सिंकोड़ता है सफाई कर्मचारी कि पढ़े लिखे संपादक ज्यादा बर्बादते हैं कागज़।

अनपढ़ सफाई कर्मचारी द्वारा पच्चीस प्रतिशत छपे अक्षरों से ज्यादा पढ़ी गई है पचहत्तर प्रतिशत सफेद कागज़ का मौन।

आवश्यकता है...

जरूरत है एक कवि की
जिसके पास लच्छेदार भाषा हो
जो हर चीज को निहायत जरूरी बताता हो
राह भरमाने में माहिर हो
जिसके बारे में कम से कम जाहिर हो
आकार ऐसा कि ना गद्दी में ना सीप में आता हो
छुप कर रहता हो 
मगर आपकी आंखों को दागता हो
मुसीबत हो या झंझावात
या हो भावनाओं का चक्रवात
रूपिया कमाना हो या फिर पखाना हो
लिखने को मरण तुल्य बताता हो 
लेकिन डिमांड पर कविताएं लिखता हो 
पुन: उसे हाट पर मौजे की तरह दस का दो बेचता हो


आप उसे कुछ भी दिखा दें
देयर्स अ लिटिल बिट ऑफ सेल इन एवरीबडीज़ लाईफ की तर्ज पर 
कविता की पुर्नस्थापना करता हो


जो हवा में मुठ्ठियां भांज दे 
तो वे शब्द आपके दांतों को मांज दे
जन आंदोलन हो या टूथपेस्ट 
उपयुक्त शब्दों से कविता में उसका विज्ञापन कर उसे अर्जेंट बता दे


तर्क हो कुतर्क हो 
अपने लिए सर्तक हो 
दलदल में मुस्कुराता उतरे
डुबकी मार मछली खाए
एकादशी के बाप भी न जाने

महिला हो तो करूण कातर मुखड़ा हो 
जिसकी हर शब्द में पिछली सदी से हो रहा अत्याचार टपके
ऐसा सुनाते हुए अपने शैम्पू किए हुए बाल झटके
पुरूष हो तो फ्रस्ट्रेटेड कवि सा यौनजनित कुंठा हो 
मादा काया देखते ही कनखी से आम आदमी बदले
और स्तनों की गोलाई का अंदाजे से नाप ले

अच्छा खासा नेटवर्क हो 
नर हो या मादा हो मगर जरूरी ये कि
सफेद ब्लाउज सी पहनी हुई विनम्रता हो
जिसके नीचे कसे काले रंग के अंर्तवस्त्र से अहंकार झांकता हो 
सच, ईमानदारी, नैतिकता और प्रेम की झाझ बजाता हो
यदि समकालीन साथी पुरस्कृत हो
हमबिस्तर होने का आक्षेप लगाता हो

कर्मक्षेत्र को शतरंज की बिसात मान
सामने वाले की घोड़े की चाल देख अपनी दुलत्ती लगाता हो

इन शर्तों पर तो मैं खुद को ही खड़ा पाता हूं।
आपमें यह सब नकारते हुए करने की क्षमता होगी
जबकि मैं यह सब स्वीकारता हूं।
बेरोज़गारी की आंधी में,
मैं इसका सर्वोत्तम उम्मीदवार  हूं।
अत: खुद को इस नौकरी पर रखता हूं।

फाल्गुन 2, शक संवत 1933। कृष्ण अमावस्या, विक्रम 2068। सौर फाल्गुन मास की 9 प्रविष्टे। उत्तरायण। बसंत ऋतु

भोर का गीला बादल जैसे गीली मिटटी पर पर खड़ा गाँव का घर
वो कहीं फैला हल्का पारदर्शी गुलाबी टुकड़ा जैसे कड़क कर रस्सी से गिर परा कोई गुलाबी दुपट्टा
कहीं एक थक्का रूई रखा हुआ जैसे रात के आँगन में चौकड़ी भरते एक पंख छूटा हंस का
दो तिहाई स्लेटी आकाश
एक तिहाई गदलाया आसमान जैसे बरसाती गंगा

सतह से ऊपर रखा कोई अदृश्य हीरा
अब प्रकाश छान रहा है, छू रही हैं अदृश्य किरणें अब सबकी मुंडेर को
बिना पलस्तर दीवार रात भर ऊँघता, गुटर गूं करता
अपनी बुजुर्गियत झाड़ता, गला साफ़ करता बूढा कबूतर

दो रंग घुलेंगे आपस में अभी तो
कोलर चढ़ा कर एक बच्चा लाल गेंद लिए निकलेगा
प्रेशर कूकर के रबड़ जितनी परिधि में दिन भर आइना चमकाता फिरेगा

एक झुण्ड निकला है पश्चिम से अभी
इतने नन्हे कि जैसे किसी ने अभ्रक के बुरादे उडाये हों

मैं आसमान की नदी में एक बाल्टी डूबा कर
सबकी पत्तल में एक एक कलछुल गीला बादल परोसता हूँ.
किसी प्रवासी पंछी के सफ़ेद फ़र को थोडा सा रंगता हूँ.

एक आदमी का, आदमी के बिना किसी सुबह को देखना अच्छा है.

स्टोव


तीन टांगों पर खड़ा, अदना सा बेढब जिस्म वाला 
मेरे घर में विकलाग बैंक के क्लर्क जैसा लगता है 
जो अनुकम्पा की आधार पर नियुक्त हुआ है. 
स्टोव.

जिसके ऊपर की पीतल के रंग छड़ी टेढ़ी मेढ़ी थाली किसी बच्ची के फ्रोक जैसी लगती है 
नीचे कोई प्रसाद की छोटी सी प्लेट 
फिर आग का फुग्गा जलता है 
बीच के खम्बे भूख -पेट के घर की दीवारें
तली एक बुजुर्ग पेट लिए बैठा है 
स्टोव 

सर्दियों में,
जब हमारे अच्छे दिन होते 
(जिस महीने मैं टाई के लिए स्कूल में नहीं पिटता, शीशम पर मिट्टी नहीं  चढ़वानी होती, सायकिल के रिम, टायर और टियूब नहीं बदलवाने होते, बाज़ार में मजबूरी में बेसन खरीदते वक्त मेरी अनपढ़ माँ  की राजनीतिक चेतना नहीं जागती होती और वो नरसिंह राव सरकार को नहीं कोस रही होती)

हम किरोसिन भरवा कर रात भर स्टोव को घेरे रहते  
धीमी -धीमी आंच पर माँ -पापा से कहानियां सुनाते
स्टोव मंद -मंद मुसकाता रहता 
किस्सागोई की परम्परा दौड़ती रहती 
उसकी छातियाँ नुकीली रहती 
दरअसल,
साहित्य से जुड़ाव होना हमारा कोई पुश्तैनी शौक नहीं
अभाव से उपजा एक रोग है.

मैं तलाश रहा हूँ वो किताब जिसमें स्टोव का शब्दांकन ठीक मेरी यादों में बसा जैसा हो.
लेकिन ये अंतर स्क्रीन प्ले और उपन्यास जैसा ही रहा 
ये फर्क किसी चादर के इस्तेमाल के बाद उसपर कब्र बनाने सा रहा 
स्टोव हमारी याद में कुंडली मार कर बैठा है 
जैसे याद में कोई इनारे से झांकता अपना ही चेहरा 

हम मकान मालिक के यहाँ से निकाले जाते 
'किताब के अक्षर छोटे हैं इसलिए पानी आता है'
कि आड़ में  रोने की सहूलियत गढ़ते
अनपढ़ माँ स्टोव के ठीक वासर को खराब बता ज़ोर से आंच देती 
एक निम्न वर्गीय परिवार के औरत का विद्रोह 
अपने करम कूटने जैसा ठक- ठक बजता 
स्टोव बुक्का फाड़ कर धधकने लगता

हालांकि खाना जल्दी पकता 
फिर भी घर में झगडे होते
पिताजी इसी स्टोव (चूल्हे) के जलने का वास्ता देते 
ईश्वर के शुक्रिया अदा करने का पाठ पढ़ाते 

स्टोव प्रतीक बन गया था हमारे अस्तित्व का
जो कोयला फोड़े जाने तक ज़ारी रहा 
और 
मैंने पिस्तौल के दम पर एक गैस चूल्हा लाने की सोची 

माँ के हाथ से गोल हो सिंकती है रोटी 
स्टोव बस उसे पकाता है.
तीन टांगों पर खड़ा अदना सा विकलागं ये क्लर्क   
फिर भी, हमारे घर का पांचवां सदस्य है.