निजता से परे बहती शाश्वत नदी


सीखचों में बाँध दो मुझको 
या भेज दो दूसरी दुनिया में
ख़त्म नहीं होऊंगा मैं 
मुझे अमरता का वरदान है.

आलते के पत्तों पर रख दो या 
फिर मेरी घडी फोड़ दो
तुम्हारे मन पर रेंग जाऊँगा मैं या 
फिर मेरे होने की सूई तुम्हारे वजूद के डायल में घूमती रहेगी

रंग बनाओगे मुझे?
या चिता पर जलाओगे
सूई की तरह तुम्हारे शिराओं से बिंध जाऊँगा.

नहीं रहूँगा मैं तो विभिन्न किरणों में बँट जाऊँगा
कपास के रेशे में मिलूँगा
गेंहूं से उसके छिलके के छिटकन में,
किसी दूर देस की औरत के कतरन में 
और जब कहीं नहीं दिखूंगा तो सबके जीवन में मिलूँगा.
मुझे जितने कोष्ठक में बंद करोगे
मैं लम्बे समीकरणों में सत्यापित होऊंगा 
तुम्हारे देह में नेफ्रोन हूँ मैं
तुम्हारे देश को ढँक लूँगा.

सभ्यता का पवित्र संस्कार हूँ.
तुम्हारे ज्ञान की जिज्ञासा का मूल जानकार हूँ मैं.
निवेदन के बाद भी जिसका आग्रह बचा रहता है
बहुत सख्तजान, एक चमत्कृत करता तलवार हूँ मैं.

6 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय said...

अपनी शर्तों पर जीना आता है मुझे..

अनुपमा पाठक said...

मुझे जितने कोष्ठक में बंद करोगे
मैं लम्बे समीकरणों में सत्यापित होऊंगा
तुम्हारे देह में नेफ्रोन हूँ मैं
तुम्हारे देश को ढँक लूँगा.

सुन्दर विम्बों से बुनी सशक्त कविता!

दर्पण साह said...

:-)

वाणी गीत said...

विचार सींखचों में नहीं रखे जा सकते ...प्रकृति के विभिन्न अवयवों के साथ विस्तृत होते हैं !

Rahul Ranjan Rai said...

kya baat! bahut sunadar!

www.bhukjonhi.blogspot.com

Anonymous said...

तुम्हारे मन पर रेंग जाऊँगा मैं...
बेहतर...