बदन तंदूर है



तुम मेरी बाहों में हो, कितना कुछ हो आया है 
पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन करती रुक गयी है. 
जैसे बरसों के किसी घाव से निकल आये ढेर सारा मवाद
मुझे बताओ कि आग बाहर लगी है
या तुम्हारा बदन तंदूर है.

तुम्हारी ताम्बाई पीठ; एक आईना
मैंने बारहा लपटों को उठते यहाँ देखा है.
तुम्हारा जिस्म चाय की एक केतली 
सुराहीदार गले को धुंआ उलगते देखा है. 
इन तरह देखने में कोई  बर्फ की भारी सिल्ली टूटता रहता है मुझमें लगातार.

तुम्हारी कातर नज़रों में मिले प्रेम की बेहिसाब मांग 
अर्थव्यवस्था के मांग और आपूर्ति के नियम से उलट हैं. 
मैं बस हर बार देह से कर रहा उसे पूरा
मैदान में खुले सीमेंट की बोरी सा जमता रहा हूँ मैं.

मुझे बताओ मैं कैसे हो गया ख़राब !
जब खुद से ही बांधे जाएँ अपने हाथ और तकिये का एक कोना लगभग चबाते हुए रोयें रात भर
क्या करे कोई तुम मिलो तो बाहों में भर कर चूमें भी नहीं ?

कोई फर्क नहीं बदन और दुनियावी चीजों में 
कारखाने में काम कर जाना कि
भावुक लौह अयस्क से निर्मित मेरे शरीर के कारखाने में बनते रहते  है तमाम अवयव 
रंदा पड़ा नाज़ुक गला; चिमनी,
उगलता; काला धुंआ,
तुम्हारे नितम्ब और घुटने के बीच का हिस्सा: लाईटर की दिपदिपाती लौ.
मुझे सिगार बना कर फूंक डालो
रजाई में गठ्ठर बन आये रूई की चिंदी उड़ा दो
मजहबी टोपी के रंग उड़ा दो.

एक गर्म गुज़रता लावा सा तारकोल, बहता अन्दर 
तुम मरम्मत मांगती सड़क, मैं जालीदार बर्तन
अपने वजूद  को ही कर तार तार हों छलनी 
तुम पर बरसता रहूँ मैं.
लपक कर चूमना, चूमना, चूमना. 
इसे कविता में यूँ पढ़ना कि चूमना, घूमना, चूमना जैसे 
प्रेमी करे दशों दिशाओं से आलिंगन.

उतार दो लिबास अपना 
चूल्हे को बिना जलाए नहीं पकाई जा सकती रोटी.
प्रेम में पेट का भरना मजबूरी नहीं
वार देना खुद को, मिलाना फफूंद लगे शराब में, नाचना तांडव, मिटाना पीठ के छाले, बनना जोगी, चढ़ाना हथकरघे पर.

पका हुआ प्रेम जैसे धुएं में सना भुट्टे का पुष्ट दाना

किसी पक्षी के रंगीन चोंच सा वितान लिए,
किसी खुद्दार की नाक, 
तमाम तरह की पर्वत श्रेणियों के बीच अचल, गंभीर पर्वत शिखर
धूप पड़ती बालुई धरती पर मरती घास के बीच से जाता अलसाया रस्ता जैसे 
मेड़ पर तकिया लगाए बारह हाथ का निडर, धामन सांप.


लॉन में अशोक का पेड़ जिसकी ऊंची जाती फुनगी,
यूकिलिप्टस के तने सी सादी कागज़ी जंघा, 
लंबी, ठंडी, पतली उंगलियों के बीच गोरी मरमरी कलाई। लकीरें ग़म में गीली
आँखों में कई पगडंडियां। एक रस्ता चरवाहा का, एक रस्ता कव्वाल का घर
होंठ यों आपस में लिपटे जैसे नाग-नागिन सहवास में रत
बनावट ऐसे काढ़े हुए कि मेरे नाम में ‘ग‘ के उच्चारण पर की स्टिल पिक्चर
एक हड्डी की नाजुक चोट से टूटकर बने गले और कंधे 
एक हरी लकड़ी टूटन के बाद भी अपने छाल से जुड़ी हुई
जिसके अंर्तवस्त्र हाथ में हो तो साँसें जंगली न हो प्राणायाम चले
भीड़ में होती हुई भीड़ से निकलती लगे.

प्रेम करता हुआ आदमी खोता जाता है मानवीय देह
उम्रदराज़ महिला से प्रेम करना जैसे 
छिलते पेंसिल से नोक का निकलना है 
स्लेटी रंग में सूख चुके आंसू सा चमकता उसका उदास नाम लिखना है
उम्रदराज़ महिला से प्रेम, समाधि में होना है।

आंगन में एक तेजपत्ते का पेड़ रहता था

आंगन में एक  तेजपत्ते का पेड़ रहता था। 
तेज़ी से अपने फर उगाती गौरेये सा
नीले गोटेदार कसा स्कार्फ पहन, कटोरी से पानी चुगते, 
दाना खाते कुबेरा बीट करता कबूतर सा 
सब हलचलों के बीच अपने पत्तों का पंख गिराता था।
आंगन में एक  तेजपत्ते का पेड़ रहता था।

जब भी हमारी गेंद बिना पलस्तर छाती भर बाउंड्री पार जाती
उसके कोटर पर पैर का अंगूठा फंसा ऊपर चढ़ते जाते 
हथेलियों को सहारे खातिर जिसके तने में कई गांठें थीं 
हम सीधे होते जाते और बाउंड्री का गिरेबां पकड़ लेते
उस वक्त मुझे ऐसा ही लगता यह पेड़ बाढ़ग्रस्त इलाके की बस्ती का कोई रहवैया है 
जिसके बच्चे स्कूल जाने को हैं 
यह बाप अपना कद छोटा कर नीचे बैठ 
अपने कंधे पर बच्चों को चढ़ने का इशारा करता है 
और फिर उसके नन्हें कदमों के अंतराल का ख्याल कर 
पहले अपने घुटने को सीढ़ी का पहला पायदान बनाने को कहता है।

अक्सर जब पुरबाई चलती सारा घर तेजपत्तों की हल्की गंध से महकने लगता
मुझे याद नहीं आता हमने कभी तेज़पत्ता बाज़ार से खरीदा हो। 
मिश्रा अंकल सुबह दातुन करते आते और 
हालचाल पूछते पूछते आठ-दस पत्तियां लेते जाते
शरमाइन सत्यनारायण कथा का न्यौता देती और बातों बातों में ले जाती
फलाने की बेटी देखने रिश्तेदारों के लिए चाय में 
स्वाद के लिए भी पत्तियां तोड़ी जातीं।

मुझे याद है पहली बार बबली से मिलने जाते समय 
मैंने दो पत्तियां इसलिए चबायी थी कि 
यह माउथफ्रेशनर का काम करता है।
और जिस पत्ते को उल्टा कर पहली बार उसके 
गाल से कान के पीछे तक फिराया था 
वो आज भी डायरी में रखा है।

पम्मी कभी वन की राजकुमारी बनती तो 
अपने हेयरबैंड में इसका एक पत्ता सीधा खड़ा कर दबा लेती
इस तरह तेज़पत्ता लापरवाही से हमारी जिंदगी में शामिल था।
उसकी याद आते ही मेरा अतीत उसकी हल्की नशीली खूशबू से महक उठता है।
उसकी सुगंध के साथ ही ठंडे पड़ गए सारे चेहरों से धुंआं उठने लगता है।
याद की पतीली उन धुंओं से गर्म हुई जाती है।
मैं अत्यधिक दबाव में आ प्रेशर कुकर सा घनीभूत हो कविता लिखने लगता हूँ।
और जब नहीं संभाल पाता मेरा देहरूपी बर्तन यह दबाव भी तो 
आँखों से पानी के बुलबुले निकलने लगते हैं।
हम भाई बहन के छत से अपने टूथपेस्ट मिले थूक को 
दूर तक फेंकने के खेल का गवाह यह पेड़ रहता था 
आंगन में एक  तेजपत्ते का पेड़ रहता था।

आज जब मकान मालकिन ने बातों बातों में यह कहा
उसने जाना ही नहीं कि तेज़पत्ते का पेड़ होता है! 
तो मुझे यह एक शहर की विफलता लगती है।

बचो, कहानीकारों!
ये कहने के लिए कि यहाँ आदमी रहता था
आंगन में एक  तेजपत्ते का पेड़ रहता था।

हुआ करे लिबास हम तो जिस्म देख लेते हैं


रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं 
शाम को बारिश हुई है और आसमान धुला धुला है
हवा मीठे रोमांस की खुशबू सी महक रही है. 
चाँद काले छींट वाले बादलों के परदे टांग 
अपने शिविर में आराम को जा रहा है.
आज उसके मलमल के कुरते का कोई बटन नहीं लगा. 
और उसके सीने से दूधिया चांदनी बरस रही है.

तुम्हारी खिड़कियाँ और बाल दोनों खुले हैं.
कमरे में कुमार शानू "ये जो थोड़े से हैं पैसे" गा रहा है  
और मेरे कमरे में गूंजे अलका याग्निक की तीखी आवाज़ "गली में आज चाँद निकला".
बालकनी में दोनों गीत एक दुसरे में घुल एक डूयेट बन जाता है. 

दोनों आवाजों की शक्लें उभरती हैं. 
हम मिल नहीं सकते लेकिन वे गीत हमें मिला रहे हैं
लब पर जो चाशनी सी लरजती हुई बात है, दोनों कह रहे हैं. 
जैसे बरसों बाद गाँव के घर जाओ 
और बिजली जाने पर छत पर खेले जा रहे अंतराक्षरी में 
दिन भर जिसे चोर नज़र से देखते हों 
उस पड़ोस की लड़की को लक्ष्य कर अंतरा गाया जाए.

"माना अनजान है तू मेरे वास्ते 
माना अनजान हूँ मैं तेरे वास्ते 
तू मुझको जान ले मैं तुझको जान लूँ 
आ दिल के पास आ इस दिल के रास्ते"

वो मद्धम स्वर में गुनगुनाती हुई नदी सी आ मिले 

"जो तेरा हाल है वो मेरा हाल  है 
इस हाल से हाल मिला.... "

तुम्हें मीर पढने को दिल हो आया है.
मुझे याद आ रही है कीट्स की कोई टूटी पंक्ति
हम दोनों अपने अपने कमरों में मुस्कराहट लिए जल्दी जल्दी किताब ढूंढ रहे हैं. 
मेरा उत्तर तुम हो 
तुम्हारा जवाब मैं हूँ.

मैं हवा में तुम्हें छूने के अपने अरमान भेजता हूँ.
वो गर्म हवा तुम्हें छू कर ठंडी होकर लौटती है.
कैसे प्यार को रोकेगा कोई. 
कि जिससे मिलना मना है 
उसके स्पर्श से नहा रहा हूँ मैं.
तुम्हारे हुस्न का झीना चादर पड़ा है मुझ पर 
अल्हड़ से मनी प्लांट के एक पत्ते को छूता हूँ. 
कसे हुए उन अंगो में इनकार झूलता है.
बीच जून में सिहर उठा हूँ मैं.

सुनो ईश्वर! मैं किसी भी उम्र में हो सकता हूँ आवारा.
सुनो समाज! मैं बुढापे में भी कर लूँगा निर्बाध प्रेम
सुनो सत्तासीनों! ग्वांतानामो की बेड़ियों में जकड़ो या जेल में डालो 
मैं जियूँगा अपनी ही तरह 
देख ही लूँगा सपने 
चखा ही दूंगा आज़ादी का स्वाद.

आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.

आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.

बिस्तर पर पड़ा होता हूँ मगर सुदूर अंचल की यात्रा हो जाती है
मन हिचकोले खाता है और लगता है 
उबड़-खाबड़ सड़क पर किसी बैलगाड़ी में सवार हूँ
पहिये रास्तों की गहराई से लड़ रहे हैं.
कुछ महिलायें जिस पर लोकगीत गा रही हैं
जैसे पानी भरे घड़े को पानी में डूबोया जाता है
आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.

आबिदा की आवाज़ मुझे
अपने ही परिवार में इक बिन ब्याही मौसी की याद दिलाती है
जो अपने धड़ को रखती है इस तरह चाक-पैबंद कि
कई बार उसके मर्द होने का अंदेशा होता है. 
उसके छाती से दूध नहीं उतरने का दर्द 
आबिदा की आवाज़ में ढल कर उतर आया है.

मेरे तकलीफों की आलमारी में 
कई दर्द बिना इस्त्री किये रखे होने से
ज्यादा जगह घेरते हैं 
आबिदा की आवाज़ सबको मुलायम तहदार बना सलीके से लगा देती है
मेरे अन्दर और दर्द भरने की जगह बनती जाती है. 

उनकी आवाज़ मन के सूने रेगिस्तान में
हल का फाल धसेड़ते हुए जाती है
एक अमिट लकीर बन उनकी आवाज़
आपाधापी में एक लंगड़ डालती है.

दिल टूटने की आवाज़ जो मैं भूल गया था
उनकी आवाज़ उसकी छायाप्रति है
आबिदा मिलन में छुपे विरह का गीत गाती है
सीले पड़े माचिस को इश्क से सुलगाती हैं
उनकी हूक सुन घर छोड़ लापता होने का मन होता है 
चिठ्ठियों पर पता लिखते लिखते जैसे कोई खो जाता है
आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.

निजता से परे बहती शाश्वत नदी


सीखचों में बाँध दो मुझको 
या भेज दो दूसरी दुनिया में
ख़त्म नहीं होऊंगा मैं 
मुझे अमरता का वरदान है.

आलते के पत्तों पर रख दो या 
फिर मेरी घडी फोड़ दो
तुम्हारे मन पर रेंग जाऊँगा मैं या 
फिर मेरे होने की सूई तुम्हारे वजूद के डायल में घूमती रहेगी

रंग बनाओगे मुझे?
या चिता पर जलाओगे
सूई की तरह तुम्हारे शिराओं से बिंध जाऊँगा.

नहीं रहूँगा मैं तो विभिन्न किरणों में बँट जाऊँगा
कपास के रेशे में मिलूँगा
गेंहूं से उसके छिलके के छिटकन में,
किसी दूर देस की औरत के कतरन में 
और जब कहीं नहीं दिखूंगा तो सबके जीवन में मिलूँगा.
मुझे जितने कोष्ठक में बंद करोगे
मैं लम्बे समीकरणों में सत्यापित होऊंगा 
तुम्हारे देह में नेफ्रोन हूँ मैं
तुम्हारे देश को ढँक लूँगा.

सभ्यता का पवित्र संस्कार हूँ.
तुम्हारे ज्ञान की जिज्ञासा का मूल जानकार हूँ मैं.
निवेदन के बाद भी जिसका आग्रह बचा रहता है
बहुत सख्तजान, एक चमत्कृत करता तलवार हूँ मैं.