स्टोव


तीन टांगों पर खड़ा, अदना सा बेढब जिस्म वाला 
मेरे घर में विकलाग बैंक के क्लर्क जैसा लगता है 
जो अनुकम्पा की आधार पर नियुक्त हुआ है. 
स्टोव.

जिसके ऊपर की पीतल के रंग छड़ी टेढ़ी मेढ़ी थाली किसी बच्ची के फ्रोक जैसी लगती है 
नीचे कोई प्रसाद की छोटी सी प्लेट 
फिर आग का फुग्गा जलता है 
बीच के खम्बे भूख -पेट के घर की दीवारें
तली एक बुजुर्ग पेट लिए बैठा है 
स्टोव 

सर्दियों में,
जब हमारे अच्छे दिन होते 
(जिस महीने मैं टाई के लिए स्कूल में नहीं पिटता, शीशम पर मिट्टी नहीं  चढ़वानी होती, सायकिल के रिम, टायर और टियूब नहीं बदलवाने होते, बाज़ार में मजबूरी में बेसन खरीदते वक्त मेरी अनपढ़ माँ  की राजनीतिक चेतना नहीं जागती होती और वो नरसिंह राव सरकार को नहीं कोस रही होती)

हम किरोसिन भरवा कर रात भर स्टोव को घेरे रहते  
धीमी -धीमी आंच पर माँ -पापा से कहानियां सुनाते
स्टोव मंद -मंद मुसकाता रहता 
किस्सागोई की परम्परा दौड़ती रहती 
उसकी छातियाँ नुकीली रहती 
दरअसल,
साहित्य से जुड़ाव होना हमारा कोई पुश्तैनी शौक नहीं
अभाव से उपजा एक रोग है.

मैं तलाश रहा हूँ वो किताब जिसमें स्टोव का शब्दांकन ठीक मेरी यादों में बसा जैसा हो.
लेकिन ये अंतर स्क्रीन प्ले और उपन्यास जैसा ही रहा 
ये फर्क किसी चादर के इस्तेमाल के बाद उसपर कब्र बनाने सा रहा 
स्टोव हमारी याद में कुंडली मार कर बैठा है 
जैसे याद में कोई इनारे से झांकता अपना ही चेहरा 

हम मकान मालिक के यहाँ से निकाले जाते 
'किताब के अक्षर छोटे हैं इसलिए पानी आता है'
कि आड़ में  रोने की सहूलियत गढ़ते
अनपढ़ माँ स्टोव के ठीक वासर को खराब बता ज़ोर से आंच देती 
एक निम्न वर्गीय परिवार के औरत का विद्रोह 
अपने करम कूटने जैसा ठक- ठक बजता 
स्टोव बुक्का फाड़ कर धधकने लगता

हालांकि खाना जल्दी पकता 
फिर भी घर में झगडे होते
पिताजी इसी स्टोव (चूल्हे) के जलने का वास्ता देते 
ईश्वर के शुक्रिया अदा करने का पाठ पढ़ाते 

स्टोव प्रतीक बन गया था हमारे अस्तित्व का
जो कोयला फोड़े जाने तक ज़ारी रहा 
और 
मैंने पिस्तौल के दम पर एक गैस चूल्हा लाने की सोची 

माँ के हाथ से गोल हो सिंकती है रोटी 
स्टोव बस उसे पकाता है.
तीन टांगों पर खड़ा अदना सा विकलागं ये क्लर्क   
फिर भी, हमारे घर का पांचवां सदस्य है.