नज़मा आत्मविरोध में विज्ञापन करती है

बिल्डिंगों के जंगल हैं
रस्सियों पर लटककर चमकीले शीशों की सफाई चलती रहती है
कारोबारी चौराहे के चौपड़ में 
नज़मा दिन भर बैंक के सामने बैठी रहती है

बैंक के आगे बोर्ड लगा है
'चलकर आइये, चलाकर ले जाइए'
दिन भर भीड़ लगी रहती है 
जन संपर्क अधिकारी ग्राहक से दुगना हँसता है
"हाँ सर्दियों की धूप  
चाय की चुस्की लेते हुए अच्छी लगती है"
बैंकों के अब सोफे लगवाए हैं. 
आवास, शिक्षा, इंशोरेंस , ऍफ़ डी सब है
बस आपकी कुव्वत क्या है

नज़मा आत्मविरोध में विज्ञापन करती है
"बैंक दे देता है इतना सब कुछ
मैं क्या दे सकती हूँ - सिर्फ बच्चा !"

"मेरी बस ग़लती इतनी 
ज्यादा उम्र नहीं है मेरी 
आंसू अब सूख चुके हैं
हजारों बलात्कारों से निकला बच्चा 
भूखा, गोद में पैर पटकता रहता है
दूध भी अब नहीं उतरता
अंतर्वस्त्र नहीं समीज के नीचे 
हवलदारों, रेड़ी वालो को सहूलियत इतनी
अँधेरे में जल्दी हो जाता है"

कभी कभी चली जाती है मंदिर में 
शिवलिंग से गलबांही कर पूछती है
या खुदा ! बलात्कार से आये बच्चे से मुहब्बत क्यूँ मुझे ?

श्रीमान ! नज़मा आत्मविरोध में विज्ञापन करती है
"नज़मा और शिवलिंग !
मैं धर्मनिरपेक्षता तो नहीं सिखा रही ?"

कभी कभी मन होता है कहने का उससे
नजमा, तुम भी इस कारोबारी चौक पर 
जिस्म का कारोबार कर लो तो अच्छा है.

लेकिन नज़मा तो आत्मविरोध में विज्ञापन करती है ना सर!

8 टिप्पणियाँ:

सागर said...

नज़मा विभाजन का सिबोल नहीं, ना ही उसे देख कर गोधरा याद आती है. चौरासी के दंगों से भी दूर दूर तक लेना नहीं उसका. पर क्या करें सर ये नज़'माएं' हर शहर में मिल रही हैं और बेहिसाब मिल रही हैं.

दर्पण साह said...

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"अगर आप कौन बनेगा करोडपति से ५ करोड़ रूपये जीतते है तो आप क्या करेंगे ?"
"एक ऍन जी ओ खोलूँगा नज्माओं और उनके बच्चों के लिए."

.....
.....

"बधाई आप एक करोड़ जीत गए अब आप क्या करेंगे?"
"आपको लेकर एक मूवी बनाऊंगा."
"पर नजमा और उसके बच्चे?"
"वो तो जब पांच करोड़ जीतता. वैसे मूवी का केंद्र वही बच्चे होंगे."

:-P

vandana khanna said...

hmmm...

प्रवीण पाण्डेय said...

मार्मिक कविता, संवेदनाशून्य समाज का चित्रण।

रवि कुमार, रावतभाटा said...

निशब्द...

कुमार राधारमण said...

हमारी कुंठा,क्रूरता और कमीनेपन से जन्मे ये पात्र कविताओं का विषय बिरले ही बनते हैं।

रजनीश तिवारी said...

मार्मिक रचना ...

अपूर्व said...

कविता हमारी दुनिया की जटिल विरलताओं को आग की धार पर तपाती है..कि लुहार के हाथों के फफोले लोहे की इस कुदाल के जिस्म पर नुमाया होते हैं..वो कितना भी नाक-भौं सिकोड़ कर निकल क्यो न लें सर..मगर नजमा कोई इस समाज की विकृति नही है..बल्कि जरूरत है..घर मे अगर उगालदान नही होगा..तो घर का पवित्र मुँह चकाचक साफ़ कैसे रहेगा..और कैसे नया ताजा माल उदरस्थ करने को तत्पर हो पायेगा...नजमा हर किसी की जरूरत है..शोषक से ले कर शोषित तक की..सच बात हो यह है..कि कोई कुछ भी कह ले..उसका यहाँ होना किसी को अखरता नही है..उसके बिना काम ही न चले कइयों का...बस अखरता है तो उसका आत्मविरोध मे विज्ञापन करना..नजमा की जुबान से डरती है दुनिया..उसकी जुबान काट दीजिये तो आपके सारे राज स्विस बैंक की तरह महफूज हो जायेंगे..आखिर गंगाजल घर मे रखने का फायेदा भी क्या होगा अगर अपने धोने के लिये कोई गुनाह ना हों...ये घोर विरोधाभासियों की दुनिया है..जहाँ हम अपनी ही दुम को अपने पैरों से कुचलते हुए दर्द से चिल्ला रहे हैं..और सामने वाले से बदला लेने के मंसूबे भी बना रहे हैं..कविता की चीख इस नक्कारखाने मे कितनी दूर तक जायेगी..इसे भी जमाना ही तय करेगा..