किनारे की लकड़ी अब टूटने लगी है.
अक्षर अब इस पर पूरी तरह नहीं मिटते
अधमिटे आपस में झगडा करते हैं.
किसी के भवें तनी हुई लगती,
तो कोई अधूरा शब्द पूरा प्रतीक नहीं बन पाता
कोई ज्यादा जगह लेता तो कोई दब्बू सा किसी कोने में बैठा संकोच करता है.
फिर भी, बारहा इस पर कोई ना कोई शब्द लिख देता हूँ.
महसूस होता है कि सिकुड़ता जा रहा हूँ दिन - ब-दिन
माँ बड़े सुन्दर पत्ते बनाती थी इसपर
पत्ते हरे होकर मुस्काने लगते थे,
और तब मेरी माँ इसमें डंठल लगा दिया करती
लकीरें गाढ़ा करते वक़्त माँ की चूड़ी बजने लगती थी.
कोई हाथ पकड़ कर कोई नया शब्द सिखा, बाल झिंझोर जाता
और जब पहली बार जब
उस छोटी फ़्रोक वाली लड़की का नाम लिखा तो
आँखों का मुस्काना देखा था.
स्लेट पर क्या लिखा है जो मिटता नहीं ?
छुप कर चोक आज भी खाता हूँ तो
उस सांवली जाँघों वाली लड़की का नमकीन स्वाद आता है.
गणित सीखने में हिसाबों कि गड़बड़ी भी यही से शुरू हुई थी.
दोस्तों को प्लस वन (+1+1...) कर कर के गिनता था.
आखिरकार 'भूलना', भी इसी ने बताया.
स्लेट को बचाने में जिसने योग दिया
काश ! वे उन पर लिखे गए सारे शब्दों की महत्ता भी बचा पाते.
स्लेट की पृष्ठभूमि में बसे अक्षर अक्सर हमारे चेहरे होते हैं.