हमारी रगों में अब आखिर बहता क्या है



उधेड़बुन में तपता आदमी
तकता है-
कमरे का शांत आकाशतलाशता है-
भारहीनता का अनुभव,
घुटा हुआ सन्नाटा,
खोया हुआ स्पर्श
दौड़ता हुआ खून.

जलावन जब जलने को होती 
नहीं बचती चूल्हे में राख भी 
हम कुरेदते थे पकाने को मांस
अंगीठी को हँसते देखे जमाना हो आया

पीर की मज़ार पर बाँधा किये 
मन्नत के धागे
और उठ कर खामोशी से
नाप डाले कई किलोमीटर
बस स्टेंड अब गली के मोड़ पर है 
हम चलना भूल गये.

इन्ही दिनों भूख सिपाही बनकर 
खोंचता था डंडा,
सांत्वना देती थी माँ,
दिलासे देती बहनें,
और उकताए हुए हम
पंचायत के फरमान सुनते थे

हर लिखा पढकर लगता है
यह वो नहीं था जिसकी हमें तलाश थी
कविमन का मर्म पहचानने में
असफल हो रहा है.

अब ना आते हैं राष्ट्रवाद के सपने,
ना उत्तेजित होते हैं हम
बगैर प्रेम किये ही देखते हैं धोखे के अनंत रूप

कंक्रीट के जंगल में,
उखड़ते पलस्तर की खुशबू नहीं आती
पसीना भी मेहनतकश जैसा नहीं लहलहाता
चोर सा रिसता रहता है.

हमें खाए जा रहा है रात-दिन यह सवाल
हमारी रगों में अब आखिर बहता क्या है !