कवि कह गया है – 7


गवाह बोलते हैं-

हाँ!
गज़ब का ज़हीन था
पर मर गया

बचपन से
आसमां पैमां बनने की ख्वाहिश पाले
संभावित सायेदार पेड़ जैसा खड़ा
सामने के बाड़े में अपने उतरने की
प्रतीक्षा में रह गया.

गज़ब का ज़हीन था
पर मर गया

इश्क का खौफ यूँ था कि
चैन से ब्लू फिल्म देखना मुहाल था
कहता;
नायिका के शक्ल में प्रेमिका दिखती है

बाहर ही बाहर
वक्त ने इतने निर्णायक फैसले सुनाए कि
अपनी मिटटी में धंस गया

गज़ब का ज़हीन था
पर मर गया

झुर्रियाँ, एक दूसरे को फ्लाई ओवर की तरह काटती थी
सनक में लिखता था,
झोंक में चलता था,
आज़ादी के लिए मरता था,
आज़ाद होकर बोलता था,
खुद को छुपाता था पर
भेद खुल ही जाता था
पुर्नजन्म में यकीं न था
यूं मीठा ज़हर चखते-चखते मर गया

गज़ब का ज़हीन था
पर मर गया

वो जीने के लिए उतारा गया था
लेकिन मर गया.

कहता था
"योग्यताएं पर्स में पड़े कंडोम जैसी होती हैं
गर समय से प्रयोग न आए तो
'उठते-बैठते' क्षतिग्रस्त हो जाती हैं"

सर्प-दंश

स्नेह !

उठो

आ कर मुझे बहरूपिया बना दो


हिंसा, आतंक, आम आदमी, जनता, सेवा !

आओ

मेरे जिह्वा पर विराजो

मुझे इनकी दुहाई देते खाना है


विस्तार !

तुम्हें तो मौके देख कर पहनना होगा मुझे


मेरे अभिमान,

मुझे किसी ऊँचे पत्थर पर ले चलो

वहाँ से फीते लटका मुझे वर्तमान स्तर

जानना है.


प्रेम

मेरे सबसे जिम्मेदार चोले !

मुझे नाचना सिखला दे


चाह!

मुझे छुपा सत्य बतला दे

मैंने जो प्रेम बांटे हैं

उसमें कितने कांटे हैं ?


मैंने लिफाफों से कहा है;

खत,

खुलो मेरे पास

जला कर राख करना है तुम्हें

अभी

अपनी विनम्रता की आग में