कवि कह गया है - 6



फेंफडे में सहेज लो

ये ताजी हवा,

यह प्रकृति के विविध रंग,

तितलियों का रसास्वादन करते पंख खोलना और बंद करना

रख लो आँखों में

कमजोर लताओं का आत्मविश्वास से खड़े होना.


उन दिनों के लिए

जब अवसाद घेरे और

मन का अँधेरा करवटें लेने लगे

रोक लो इन हवाओं को

कश बना कर,

दो पल;

उलझी हुई आँत के गलियों में

सिगरेट के धुंए के जैसे


क्योंकि,

बांकी है अभी

जेठ की दुपहरी में

दिन-दहाड़े शहर में खो जाने का डर

आधी रात में छत से शहंशाह होने का गुमान होना


बांकी है अभी,

बरसाती पानी से भरा विषैला

भादों का कुआँ बनना ,

लबालब भरते अंगने से

बरामदे में

सांप और बिच्छूओं का चढ़ना...


अंततः,

पूष की रात में

प्लेटफार्म पर छीने गए चंद झपकियों में

प्रकृति की विविधता,

स्कूली दिनों की देशभक्ति

और चंद गुलाबी दुपट्टों की

सारगर्भित गर्माहट


यह वसंत है तुम्हारे जीवन का खिलौना,

तुम्हारी प्रेयसी का चुम्बन

यह वसंत है स्तुति-गान

यह वसंत है तुम्हारे महासमर का बिगुल.

कवि कह गया है - 5


आने वाले दिनों में हम
अपनी महत्वाकांक्षा की
तरकश में
कुछ और विष बुझे तीरों से साथ
नयी नस्लों की शिकार पर निकलेंगे.

बर्बरता के निशान हमारे सांवले जिस्मों पर होंगे
नमकदार चेहरे में छिपी होगी
तब भी
हमारी चमकती बत्तीसी
जिनसे हमने
'मांस खींचने' का काम लिया है.

इन्हीं दांतों से हमने खींचा था मां का दूध
फिलहाल
हमने अपनी पदोन्नति इसपर टिका रखी है।

इस विज्ञापन युग में हमें
अपने दांतों से
बड़ी उम्मीदें हैं.

निश्चित घूर्णन की दरकार है, बस
बाल्टी फिर कुंए में होगी.

बाघ!
हमारे हाथ अब भी खाली हैं
फिर भी;
हम तुमसे ज्यादा हैं ताकतवर.

तुम्हारी प्रजातियों का अस्तित्व खत्म कर
साबित कर देंगे
कि हम
तुमसे ज्यादा हैं- मांसाहारी.

खा जाएंगे हम समूची प्रजाति.

इस तरह तब
सिर्फ हमीं समझेंगे
कि हम हैं
सांपों से ज्यादा दोगले
औ'
हरामियों से ज्यादा
नमकहराम!

कवि कह गया है - 4


मस्तिष्क में जब अम्लीय प्रतिक्रिया हो रही हो
और सरोकारों की परिधि में
महज़ हाइड्रोज़न बम का
विस्फोट हुआ हो

एक पैर को बांध कर सरहद पर
कंटीले बाड़ों के बीच घसीटा जा रहा हो...
उन कांटो से सृजनशील और समाजवादी मन के
चीथड़े होते जा रहे हों...

सदियाँ, जैसे
किसी खाकी बैकग्राऊण्ड में चलती
फिल्म लगती हो.

दृष्टि के अंतिम छोड़ पर
हरियाली में आग लगी हो

ऐसे में
'अब कुछ हो जायेगा हमसे'
मुझे अक्सर लगता है माँ

माँ, मुझे अक्सर लगता है
सेना ने हमारे शिविरों में घुसकर
बीती रात भीषण तबाही मचाई है
कई गर्भनाल समय से पहले काट डाले हैं
बच्चों की नींद ख़राब की है
औ' अनुशासन नामक कोई शिष्टाचार भरा रीत
नष्ट किया है.

फिर,
मैं कल्पना करने लगता हूँ उस कवि का
जो सांसत में जीता है
जिसके शांतिपूर्ण जीवन को 'हमास' का घोषित कर
उसके कुर्ते को उसके मुल्क जैसी सूरत दे दी गयी है

सोचता है कवि
कैसा विरोधाभास है ना प्रभु!
उस पार हथगोले फेकने से पहले

मानस पटल पर सृजन की लकीरों के सामानांतर
खिंची जाती हैं त्रासदियों की रेखाएं
.