इल्तज़ा


तुम्हें याद है
अपना बचपन ?
जब शाम को लुक्का-छिप्पी खेलते थे हम
तुम आने की कह कर जाती
मैं इंतज़ार करता रह जाता
सबकी नज़रों से ओझल हो जाता

तुम्हें याद है ?
तुम्हारी स्टचाइयू कहने पर
मैं रुक जाता
वोहीं का वोहीं- वैसे का वैसा
फिर तुम्हारे लम्स से ही शुरू होता- नया दिन

तुम्हें याद है?
तुम्हारे कहने पर भी मैंने
नहीं लिया था
तुम्हारे होंठों का चुम्बन
यह कह कर कि
अभी इसमें वो सुर्खी नहीं आई है

अब जबकि
खेल खत्म हो चुका है
तुम्हारा मुझ पर कोई वश भी नहीं है
औ' तुम्हारे होंठों पर सुर्खी भी आ गयी है

क्या नहीं शुरू हो सकता कोई नया दिन???

मनतक*


मत लिखो अब प्रेम पर,
विरह पर,
सौंदर्य, प्रकृति पर

मत लिखो वीर रस की कवितायेँ
...वो सारे युग बीत गए

क्यों सोचते हो, महाकवियों के बारे में?
तुम्हारी कूव्वत,
उन जैसा लिखने की नहीं है.

एक खबर उठाओ,
उसका संपादन कर दो

हो गयी कविता!
औ' तुम कवि!

वह तुम पर गर्व करे, ना करे
तुम इतरा उठोगे

आज सभी कवि हैं
देखो कितने बिखरे पड़े हैं...

यह नए युग की कविता है
यहाँ खबरें ही कविता हैं...

औ' यह तुम्हारी बेहतरीन रचना है!!!
* तर्क

चेतावनी


अभी, रात से डरो
इसमें कई चीत्कार दबे हैं...
दिन में होने वाली दुर्घटनाएं भुला दी जाती हैं...
वैसे भी,
तुम कई एक्सिडेंट लिए
मुसलसल चलने के आदि हो...
तुम्हारे पास 'आइस-पाइस' कहने का वक़्त नहीं होगा
हर मोड़ पर धोखा 'धप्पा' दे देगा

प्यार से मत देखो,
नयी नस्लों के बच्चों को
वो छनिक हैं...
तुम्हारे टेबल पर का कैलेंडर पलटेगा
औ' वो प्रोफेसनल बेरहम बन जायेंगे

तुम स्त्रियाँ, अचरे में;
यह जो सौगात लिए घुमती हो ना!
बेटा पास करे तो मत सोचना कि
सिल्क की साड़ी पहनूंगी

अपना तजुर्बा है
कॉटन की साडियां
...ज्यादा आंसू सोखते हैं

एम् ओ यू रोज़ तैयार है उनके लिए
जो हाथें घास काट रही हैं
कह दो उनसे सपने ना देखे
बचा कर रखे उन हाथों की सख्ती को
कुछ सालों में परखे जायेंगे वो

हाशिये पर के लोग हो, हँसिया धारदार रखो

मैं चेता रहा हूँ ;
फिलहाल, रात से डरो
इसमें कई...

अक्षों का भंवर


रात भर ज़हर में डूबा कर रखता है वो कलम
मन में बसे ख्याल को अपने दिमाग से दूर फैक आता हैं
गोया दिमाग को
एक खोखला कमरा बनाना चाहता हो

क्रॉस वेंटिलेशन कर देता है
हवा शंख से होकर गुजरने लगते हैं..
सांय-सांय की आवाजें आने लगती है
ख्याल को उठाता है फिर ओढ़ लेता है

कांच गिरते हैं पर टूटते नहीं
उनका सिरा मुड़ जाता है
बैरक से बूट पहने सिपाही बाहर आकर
परेड करने लगते हैं...

...गर्द उठता है, घुमड़ने लगता है
भंवर बन कर लील लेता है उसको
सर से लेकर धड़ तलक बाँध दिया जाता है उसे
कुछ आरोप लगते है
वो अपने जगह पर हिलता, थरथराता, काँपता
प्रतिकार करता है

एक खोल है कुछ मिनटों का यह
फिर से सभ्य शहरी बनने में
अब ज्यादा वक़्त नहीं लगता...

ब्रेक-अप प्रेजेंट्स- द रियल वर्ल्ड!!!


आँखों पर से तुमने
रूपहला पर्दा खीचा तो
दिखने लगे मजलूम और मरहूम लोग,
बेतरतीब से भागती दुनिया, खून बेचते लोग,
रिक्शे चलाते बूढे... बचपन बेचते बच्चे
बेटी के ब्याह वास्ते पैसे जमा करता पिता औ'
चुभती धूप में फाइलें लिए दफ्तर-दफ्तर भटकता युवा

कागज़ें प्रेम पत्र के आवेदन पत्रों में बदल गए
स्याही करने लगे प्लेटफोर्म पर से
माँ को अपने भूखे दिन का सीधा प्रसारण औ'
पिता को 'ताजा संघर्ष' की कहानी,
बहनों को हँसते रहने की हिदायतें...

तुमसे छूटा तो दुनिया बड़ी दिखने लगी
महसूस होने लगा
सरहद पर खड़े होकर कैसे लड़ रहा रहा है सालों से फ़लीस्तीन,
क्या हुए वियतनामी ?

समझ में आने लगी
सफल चेहरों की पेचेदगियाँ

दिनचर्या सिमट कर कमरा जरूर हुआ
पर सब्ज़बाग़ हटाये तुमने तो
मासूमियत जाती रही,
मुहब्बत का बूँद फूट कर दुनिया भर में फैल गया
औ' रु-ब-रु हो रहा हूँ तमाम गैर-इंसानी कारोबारों से.

लीडिंग स्टोरी


कुछ बोलना नहीं चाहते
कुछ को बोलने को उकसाया जा रहा है.

कुछ के लिए आनन-फानन में तय होती है प्रेस कांफ्रेंस
मुंह में ठूंस दिए जाते हैं ढेर सारी माईकें
...दोनों इसे पसंद करते हैं.

कुछ तयशुदा समय पर बोलते हैं

सभी पर कान रख कर सुने जा रहे हैं...
पहले सन्नाटे सुनते थे
अब शोर सुनने की होड़ लगी है !!!

या तो वो कुछ 'आग' कहना चाहते हैं
या हम कुछ 'आग' सुनना चाहते हैं...
कुछ आग लिखना चाहते हैं
और लिख भी रहे है
स्टाल पर उनके लिख्खे के लिए घमासान है.

इस बीच,
घुटने मोड़े वो लोग भी अंतिम पंगत मैं बैठे हैं
जो दरारों भरी ज़मीं से ऊपर ताकते बुझ गए
ऐसे, सुने जाने के इंतज़ार में नप जाते हैं...

उनकी सुनने वाला कोई नहीं
वो कुछ 'आग' नहीं कहना चाहते
कुछ आह भरना चाहते हैं...

दिलचस्प है या के अफ़सोस
उनके लिए माईकें नहीं हैं अपने पास
और ना वक़्त ही.

मैं सियासत के गलियारे से होकर आया हूँ
फरमान जारी हुआ है उधर

देश किसान नहीं, जिन्ना चलाएंगे!!!