भूमिका


सीधे-सीधे कहाँ कभी
सामने आई तुम...

लेकिन वक़्त-ए-रुख़सत पर,
अप्रत्याशित रूप से
तुमने सामने आकर
दिया 'निर्णायक फैसला'

जाने कैसी दुश्मन थी तुम!
कभी हमारे बीच लड़ाई न हो सकी

प्यार रिसता रहा
और अपने समंदर का
जलस्तर घटता रहा...

इससे पहले कि मैं अपने सर पर के
धूप का गीलापन समझ पाता
तुमने
सजे-रचाए पैरों से
चौखट पर के 'अक्षत-कलश' की तरह मुझे
बड़ी कोमलता से
ठुकरा दिया
...और दहलीज़ लाँघ गयी

अवसर शुभ है...
गैर के
घर में 'गृहप्रवेश' का...

पहचान खोता अस्तित्व


दिल में तुम्हारे भी
कहीं भीतर
बहोत दूर...
बैठा होगा 'अपराधबोध'
पांव मोड़े गर्भ में सिकुडे शिशु के जैसे
घड़ी-घड़ी पैर मारता होगा
उठती होगी टीस भी...

अभी मैं
तुम्हारे
मन के आकाश में
उस धुंधलके
तारे के तरह
हूँ जो खो जाएगा
थोड़ी ही देर में
सूर्य की चंद किरणों में...

सोहबतें...

एक शाम...
ग़ालिब के मजार पर देखता क्या हूँ!
लगा है मज़मा

बीड़ी फूकते मिलते हैं मुक्तिबोध,
आखिरी बूँद तक की ख़वाहिश लिए ग़ालिब
और
पाइप से जिगर सींचते कमलेश्वर;

धुएँ से
आहिस्ता- आहिस्ता...
सबके चेहरे नुमाया होते है
मोहानी, निज़ाम, वाइज़, मजाज़, मंटो, शेख, साहिर

मैं मंटो से मांगता हूँ 'मोज़ेल'
सुनाता हूँ सबको
... 'सखी वो मुझसे कह कर जाते'
मज़ार भी मिलाता है मेरे सुर में सुर
बुझते दीये को देखकर गाता है;
'मधुर -मधुर... मेरे दीपक जल'

रघुवीर सहाय समझाने लगते हैं -
चल! 'संसद से सड़क तक'

मुस्कुराते हुए कोई
मेरा हाथ थामता है
दिलाता है याद
'सागर ... तुम्हें ग़ज़ल से नफरत थी...'

मैं चल पड़ता हूँ उनके साथ
आसमान करता है पेशन्गोहि *
'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'?

उमड़ता है
एक ख्याल
''... झूमते रहें देर तक दारू पीये हुए...''

(*आकाशवाणी)

सीखचों में बंद एक युग...

उसने समझा लिया होगा अब खुद को
और...
माँ को भी अब मान जाना चाहिए
लेकिन
वो है
कि ज़िद पर अड़ी है

...उन्नीस बरस में तो
उसे आदत हो ही जानी चाहिए...

दुआओं में भी
जाने क्या मांगता होगा वो...

भूल गया होगा वो कि
घोसलों में शोर बरपा करता है
कोई पापा कहकर बुलाये तो कैसा लगता है
बहन के हाथ पर लगी मेहदी
देख क्या खुशी मिलती है...

कि इस मौसम में अमलतास झुमके पहनते थे...
मुसलसल फूकों से चूल्हा कैसे जलता था...
कि माँ रोटी के पोरों को कैसे भरती थी...
हिमालय पर की प्रथम रश्मि कैसी थी...
सरसों के खेत में...
कितनी ज़द्दोजेहेद से गुजरी थी
सलमा अपनी कलाई छुडाने में...

या फिर
पत्नी मांग भरते वक़्त
पलट कर
पीछे कैसे देखती थी...
अम्मा झूठ बोलकर अब्बू से कैसे बचाती थी...

अब तो
उस बुढिया का आँचल भी लानतें भेजता होगा
जिसके दाग उन्नीस बरस से वो सोख रहा है...

जाना होगा तो
बस इतना कि...
...फौजी ने फौजी को पैदा किया।



(...ये लाइनें मैंने पाकिस्तान के जेल में पिछले १९ सालों से बंद सरबजीत सिंह के लिए लिखी हैं... और उनके ही जैसे कई अन्य लड़ाके जो ज्ञात और गुमनाम हैं उन्हें समर्पित है... हम दुआ करते है कि सरबजीत और उनके साथियों को इस मातृभूमि को चूमने का मौका फिर से मिले...)

आह! च.. चह...



हमेशा से नहीं बनना चाहता था मैं कवि.
ये तो बस मजबूरी में धरा हुआ रूप है
और...

इनमें शामिल है वो सभी चीज़ें
जो बनाती है निराशावादी
जैसे...

किसी का धोखा,
किसी की खूबसूरती,
तुम्हारे दिलफरेब अंदाज़,
मेरी गरीबी
तुम्हारा न मिलना...

मुझे नुकते, छंद, लय, अलंकारों
का ज्ञान नहीं
ना ही मेरे पास है व्याकरण का तमाम जानकारियां
शब्दकोष भी अधूरे है मेरे...
पूर्णविराम वाकया शुरू होने से पहले लगता हूँ मैं...
गोया
ना
''वो किस्सा सही गुज़रा,
ना ही वो कहने का ढब आया..."

कविताओं में देखो कितना उलझाव है...

मेरे कोमा, विसर्ग, अर्धविराम,
सभी कैसे बेतरतीब से है...

यह तुम्हें वैसे ही लगेंगे
जैसे...
बाढ़ के दिनों में गिरते है... 'राहत' दूर-दूर
वो भी 'पर्याप्त' नहीं मिलते...
या फिर
कि-
कोई स्कूली बच्चा चित्रकारी करते वक़्त
जब बिखेर देता है सारी पेंसिलें...

कवि होने से ज्यादा कवि जैसा दिखने
की चाह रही मुझे

मेरी कविताओं में नहीं मिलेगा
तुम्हें कल्पनाओं से परे-
विश्वकवि जैसा कुछ
जो हो
छितिज़ के उस पार,
संवेदनाओं के बेहद करीब
सोच से उल्टा...

जो देता हो जीवन को नया दृष्टिकोण...

मेरी पंग्क्तियों में मिलेंगे
तुम्हें अपने ही अनुभव
अपनी ही पीडा
अपना ही फरेब
बेबसी...
दुःख...
अवसाद
अतीत...
समयातीत
कलातीत...

मेरे कुर्ते, चश्मे और चमकदार लहज़े पर मत जाओ दोस्तों....
ना ही मेरे आखों में भविष्य तलाशो...


नहीं हूँ मैं कवि
मत दो मुझे यह चमकीले नाम
अमर होने की चाह नहीं है मुझको...

...तुमने व्यर्थ ही मुझे 'लेखक' या 'कवि' जैसा कुछ समझने की भूल कर दी...

'लव कंफ्लिक्ट'


मेरा प्रेम-
बाली उम्र के कमसिन का सा था
बर्फ सा श्वेत,
...मातृत्व सा सत्य,
स्तनपान सा शुद्ध...

तुम्हारा प्रेम-
दुनियादार 'मर्द' सा...
जिसे अहसास था
...'बहारें फिर भी आयेंगी' का

क्या गज़ब ... ऊहापोह था

अब जबकि
तुमने
खेल दिए है आखिरी पत्ते...

मैंने बदल दिया इसे
...अकाल मौत में !!!

इश्क के शमशान में,
मुंतज़िर है वो लाश...
एक मुद्दत से-

फुर्सत मिले तो आओ कभी
कि
... यह लाश जले !

'मानसून' भिगो गया है अभी शव को,
वक्त लगेगा अभी इसे
...राख होने में !

हमारा लम्स

शिफर से आगाज़ था अपना
तमाम परेशानियाँ थी,
थक्के-थक्के उलझनें थी
पाँव-पाँव पत्थर थे

एक सुई नहीं थी कहीं
दूर-दूर दिखता था सबकुछ
...फ़कत चंद ख्वाब थे रोशन
तुम्हारे...

मैं बेमन से चलता रहा...
तुम्हारी खातिर
... और तुमने दिखाया दिन सम्मान का

किसी की अनमनी सी नींद जागी
तो कई संभावनाएं फूटीं
वो झुरियां कुछ खिचीं
साथ के नयी कोपलें खिले

जो कदम तुमने डरे-सहमे से रखे थे
उनमें अब धमक सुनायी देती है
जो गुज़श्ता बरस नहीं थे

तुमने ठानी,
तुमने किया
... और दूर कहीं नेपोलियन का कहा सच हो गया

हमारे लिए;
महज़ कुछ साल गुज़रे हैं...
फिर सदियाँ गुजरेंगी

आओ आमीन कहें मिलकर की-
...हमारा लम्स कायम रहे