लोलिता...
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Wednesday, December 30, 2009
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राह पर गिराए
तुम्हारी चूड़ी लिए बैठा हूँ
औ' यह चुभती है
इस तरह कि
जैसे आवारा की आँखों में
विकसित होता कमसिन वक्ष
घुंघराले मटमैले बालों से झाड़ो जो धूल
तो ज़र्रे-ज़र्रे पर बिखरा अभ्रक
ना नसीब हुई जिंदगी में ले जाते हैं...
जंग जारी है
चुनौती देती उदंडता
वैचारिक धरातल पर परिपक्व बुत के बीच,
जब स्थिर मन से निकल बचपना
गाँठ बांधती है अल्हड़ता से
इस निकटता में भी इक लडाई तारी है...
...जंग महज़ सही - गलत का नहीं होता
कुछ गैर जरुरी चीजें जिंदगी के साथ
जरुरी हो जाती है लोलिता
यह आदमी नाम का सरांध संबोधन
जो दूर नाले से बहता हुआ आ रहा है
इसे बचाने की जिम्मेदारी तुम्हारी रही है लोलिता
ओ लोलिता...!!!
मैं चाहूंगा कि...
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Tuesday, December 22, 2009
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थकते-हांफते शहर में
बची रहे तुतलाई आवाज़
बची रहे सिंदूरी शाम,
रेत पर पैरों के निशान,
किसी पत्थर पर इत्मीनान से रखे कंधे
बुजुर्गों के माथे पर अनुभव से उगी सुस्ताई झुर्रियां
बची रहे आवाजाही,
बची रहे धोखेबाजी
हक़ की लड़ाई, बागी तेवर
घोड़ों की सरपट टाप
कानफोड़ू शोर के बीच
अंर्तनाद।
बची रहे मौलिकता
बचा रहे साक्ष्य
विषय-क्रम जो
कालांतर में पीढ़ियों के
पाठ्यक्रम में शामिल रहे
बची रहे
सैनिक की सेहत,
खिलाड़ी की अदम्य जिजीविषा,
रोटी की खुशबू,
पसीने की महक,
शराबी का प्यार,
कामी की वासना,
पापी का उपेक्षित कर्म,
कवि का कविता-कर्म
औ'
औरत के जज्बात का मर्म
मदमाती लौ,
बचे रहें भटकते कदम
मैं चाहूंगा कि...
बचा रहे हमारा प्रेम
इसके लिए तुम बचाना
मेरे अस्तित्व का अध्याय
जैसे मैंने बचाए हैं
अपमानित होने की दशा में
मुंह चुराती शर्मिंदगी
जैसे
अभाव में बच जाते हैं सपने
जैसे
मौके गंवाने के बाद
बच जाता है पछतावा
... बचाए रखना हमारा प्रेम
उम्र के किसी मोड़ तक
शायद; अगले मिलन तक
बची रहना तुम भी,
बचाए रखना आंखों के डोरे में तैरता रक्त प्रवाह
मैं चाहूंगा कि
कल जब इतिहास खंगाले
सभ्यता
तो;
छन कर बच जाए
...प्रेम...
रोज़ का किस्सा...
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Monday, December 14, 2009
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चलो किसी बोरी में भरकर
फैंक आते हैं... नैतिक विचारों का पुलिंदा
सारी तालीमें जो एक उम्र से दिमाग ने हासिल की है
मन कितनी सारी बातों से भरा है
वक़्त पर तो यह तालीम काम आते नहीं
एक वैचारिक प्रदूषण ही तो है
तुम मिलोगी तो बताऊंगा कि
जब भी ढलता है सूरज
उदय होने लगता है एकाकीपन
तब कुछ कसक पैर दर्द की शिकायत लेकर बैठ जाते हैं
दूर कहीं
नीली फ़िल्में,
किसी पुलिया के नीचे पी गयी आधी बोतल शराब,
किसी मजदूर से लेकर फूंकी गयी बीड़ी
औ' परायी स्त्रियों ने रोज़ रात की आत्महत्या से बचाया है...
कितनी अलहदा होती
ना जिंदगी 'एलियन'
तुम अंजुरी से शराब उलीचती
औ'
मैं वोहीं अपना वसीयत कर आता
समय जो बूढ़ा हो गया है
कहता है दिन रात
मैं बस अपना शरीर खींच रहा हूँ बेटा
कोई उसको बता सकेगा
यह लम्हा उससे पहले जाने की तैयारी में है ?
'उस' का ध्यान दिलाना
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Wednesday, December 9, 2009
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गाड़ियाँ
जब देर तलक सड़कें पार नहीं करने देती तो
उसे लगता
यह जनविरोधी हैं...
नफरत होती उन लड़कियों से उसको,
जो मौन स्वीकृति दे चुकी है कि
मर्दों का आगोश ही है उनका आखिरी ठौर...
फूटपाथ की चौड़ाई कमतर होती जाती तो
उसे लगता,
यह जड़ तो अब गया!
इस धुरी को मोड़ने की कवायद जारी है
सरकारें दुश्मन हो गयी हैं...
हमें ताश के खेल में 'दहला' बना कर
जोश से पटका गया है
हरकतें हो नहीं रहीं
इस चुप्पी के आड़ में
जाने अब कैसा षड़यंत्र रचा जा रहा है.
शल करने को
बसों में भरकर
ढोए जा रहे हैं आदमी
देर-सवेर सिद्धांत औ' व्यवहार का बारी-बारी कत्ल होना है...
हमारी आखिरी हदों को 'दूषा' जा रहा है
उनके इरादे मर्दाना फितरत से हो गए हैं...
विसंगतियां जानबूझ कर रखी गयी हैं हमारे बीच
रोग पैदा किया जा रहा है...
प्रजातंत्र
देखा नहीं हमने अभी
करना पड़े शायद कुछेक सदी इंतज़ार और...
जो कहते हैं कि देश में प्रजातंत्र है
उन्हें दिमाग दुरुस्त करने को जरुरत है.
कविता और मैं
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Friday, November 27, 2009
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Comments: (22)
कविता, मुझसे न पूछ
कि कौन है मेरी सबसे पसंदीदा कविता
मुझे किसी एक फलां कविता से परिभाषित करने की कोशिश न कर
झूमने दे मुझे आवारा बनकर इन्हीं गलियों में
गर ये बेवफाई है तो मैं कविता की मुस्तकबिल की खातिर
ये तोहमत भी लूंगा
शायद तुम नहीं जानती कविता
जब तुम्हारे अर्थों का संचार होता है
तो तुम वासना की तरह दौड़ती हो नसों में
प्रेम की तरह अवलंबित होती हो जीवन में
तुम्हारी शिक्षा स्थायित्व दे सकती है
पर तुम ...!!!
नहीं रूको,
मैं इस वक्त एक और कविता पढ़ रहा हूं
मैं गुज़र रहा हूं उसके देहयष्टि से
मैं सीख रहा हूं नए शब्द, संयोजन, शिल्प,
सीख रहा हूं खूबसूरत होना
सीख रहा हूं कि अर्थपूर्ण होना कैसा होता है मानवता के लिए
मैं देख रहा हूं प्रतिबिंबित होना
हां, इस वक्त भी कहीं कोई कवि किसी स्त्री को चूम रहा होगा
कोई शायर प्रसव पीड़ा से गुजर रहा होगा
किसी कमसिन के दिल में समंदर सा ज्वार उमड़ा होगा
किसी के कल्पना के घोड़े दौड़े होंगे
कुम्हार ने गढ़ा होगा चाक पर कच्चा सा कुछ
टांके होंगे कशीदेकार ने ज़री, साड़ी पर
कोई नवयौवना बेपनाह हुस्न लेकर इन्हीं गलियों में निकली होगी
किसी माली करीने से उगाया होगा बगीचे में फूल
किसी किसान ने एक अरब के बाद भी निर्यात के सपने बोए होंगे
ये देखो उस बूढ़े की पेशानी पर यह कैसा पसीना उभरा
क्या कोई घर छोड़ कर निकल रहा है ?
हो न तुम इन सब में!!!
मुझे अश्लील कह लो तो कहो
कि मुझे तुम से उतना ही प्यार है
जितना 'उस' कविता से है
सच है, मैंने हिचकोले खाए हैं तुम्हारे बदन पर
गर्क हुआ हूं तुम्हारे दामन में
जज्ब हुआ हूं तुम्हारी बुनावट में
कि मैं पैदा होता हूं तुममें मर कर
पर, कविता तुम तब भी बनी रहोगी
उतनी ही सर्वनिष्ठ औ' वस्तुनिष्ठ
खौफ़
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Monday, November 16, 2009
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Comments: (28)
सोचता हूँ...
एक स्तम्भ बनवा दूँ शहर में!
जहाँ सारी सभ्यताएं अपनी नष्ट होने का विलाप
किया करेंगी
बुद्दिजीवी नरमुंड, हो-हो करेंगे,
वेश्याएं गिटार बजा कर रिझायेंगी हमें;
करेंगी प्रेम में गिरफ्तार,
समंदरी आका उछालेंगे हवा में जुमले,
एक भगदड़ मचेगा
नहीं छलछलायेंगी किसी की आँखें
निर्भीक शहरवासी दफ्तर के बाद
घर जाने को नहीं होंगे उत्साहित
रूह सहवास करेगी दोपहर में
पिता कर लेगा कलेजा ठंडा
माँ कुढ़ना भूल जायेगी
धर्मग्रन्थ पढने पर फतवा होगा
कवितायेँ सच मान ली जाएँगी
लोग सो जाया करेंगे इसे सुनकर
कामचोरों को पुरस्कृत किया जायेगा
कलमकार को भी इसी स्तम्भ पर सर पटक कर मरना होगा.
दोनों सलोने हाथ नहीं होंगे व्याकुल
गोद में आने को
ख्वाहिशों की लहरों को लकवा मार जायेगा
पीर की मज़ार का रास्ता किधर है
बिलबिलाकर सुरंग में घुसते हुए पूछेंगे
आदमी शक्लें!!!
चौपाल लगा करेगी
हुम-हुम करती हवा घुमड़ेगी
उठ्ठेगा भंवर इसी स्तम्भ की जड़ से
धड़ तलक
लील लेगा क्षितिज अनंत
कब्रों से निकलकर लाशें
अपने उपलब्धियों का इनाम पाएंगे
जब कूल्हे गवाही देंगे रिश्तों में, वफाओं के
जब प्यासी आँखों के होंठ शराब मांगेगी
औ'
हम चूल्हे से एक अधजली जवालन निकालकर
शराब में हुडदंग मचा देंगे
ढोलक की थाप पर पढ़ी जाएँगी मर्सिया
और आवाम भोर की अगुआई करेंगे बाहें फैलाकर
तो
बाहें मरोड़ देंगे उसकी
नज़रिया
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Thursday, November 12, 2009
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Comments: (14)
सौ बातों की एक बात कहूँ.
'मुझे तुम्हारा शरीर चाहिए'
मैं भूल नहीं सका हूँ
वो जिस्मानी खुलूस,
पूरअमन वादी,
कोहरे भरी घाटियाँ,
जानलेवा मौजूं,
हवाई लम्स...
बासी चेहरे पर चस्पां चुम्बन...
बाहों से उड़ते परिंदे
औ' घेरे तोड़ने को
बगावत पर उतारू हुस्न...
जो फ़कत मुझे तबाह करने की योजना लिए
खुदा ने पर तुम्हें ज़मीं पर भेजा
मुझे यकीन है
यह मिलीभगत थी
एक तथाकथित षडयंत्र था
जिनसे मेरी बदनामी मशहूर हुई
मैं उसका होना चाहता हूँ
मैं तुम्हारे नाम पर शहादत चाहता हूँ.
मुझे मालूम है
ये हासिल है
मगरूर बाज़ारों में,
सस्ती गलियों में ,
पॉश इलाकों में,
बिअर बारों में,
चलती कारों में,
मगर दिल जज्बाती बच्चे की मानिंद अड़ा है
"मुझे केवल तुम्हारा ही शरीर चाहिए"
मुझे यह भी गुमान है
जब तुम चालीस साला होगी
तो ऐसे इज़हारों का बुरा नहीं मानोगी
फिलहाल,
इसे प्यार कह लो
या
मेरी बेशर्म-बयानी...
लालसा...
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Saturday, November 7, 2009
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Comments: (21)
गुलाबी सर्दियों के मखमली सवेरे में,
मुलायम कम्बल में फंसी तुम
बे-इरादा याद आ जाती हो
संसर्ग के बाद चूड़ियों से खेलना बनकर,
कमीज़ पर करीने से की गयी इस्त्री बनकर,
फिर से सम्भोग की ख्याल जगाती,
वो बालाई लम्स बनकर
सर से पावं तलक तुम्हें नापने की लालसा
एक धुर विरोधी छोर पर कैद ये कैदी
महज़ तुम्हें सोचते हुए,
कई साल गुज़ार देता है...
मेरी सारी इन्द्रियां थकी-सी जान पड़ती है...
एक मुद्दत हुई
तुमने शरारत से मेरे कान नहीं काटे
जीने का हौसला देता आलिंगन कहीं खो गया...
तेरे मसामों में मेरे उँगलियों के पोर नहीं थिरके...
तुम्हारी पीठ की आंच से आज भी कटती है मेरी सर्दी
पिघलते मोम से तेरे लबों का स्वाद आता है
सरेशाम झींगुर पायल की आहट देते हैं...
गरम लिबास बना कर पहन रख्खा है तुम्हें.
चलो,
मुझे मानसिक रूप से विछिप्त ही मान लो...
सिगार सुलगा ली मैंने
...तुम्हारी तलब लगने लगी है.
इजाज़त हो तो...
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Friday, October 30, 2009
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Comments: (16)
इजाज़त हो तो...
एक चुटकी लाली
तुम्हारे रुखसारों में घोल दूं...
शहद मिला दूं
लरज़ते लबों से झरते अशआरों में !
जान-बूझ कर गिरा दूं-
कुछ सामान
कई ख्याल जगा लूं...
तुम्हारा पल्लू, तुम्हारी कमर में खोंस दूं,
उन मछलियों को तड़पा दूं,
नम रेतों पर जो दम तोड़ती है
तुम्हारे बदन की तरह
रसोई के बर्तनों में चूड़ियों की खनक टांक दूं
परदों में तुम्हारी तुम्हारे ऐड़ियों की ऊंचाई लगा दूं
या कि
आंगन में तुम्हारे पायलों की छनक जगा दूं
नीली रोशनी में,
तुम्हारे बदन की यकबयक सारी गिरहें खोल दूं
इजाज़त हो तो...
जानता हूँ;
ऐसे काम बिना इजाज़त किये जाते हैं
पर आठ बरस बाद;
वक़्त की शर्तें बदल भी तो जाती हैं.
बोलो ना!
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Tuesday, October 27, 2009
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Comments: (8)
जल्दी जल्दी बोलो
बड़ी-बड़ी, खरी- खरी
और
छोटी-छोटी बातें
झूठ का वजूद लिए हम
निर्दयी दुनिया में
सच सुनने की कटोरी लिए घूम रहे हैं
बड़े ही व्याकुलता से देखा करते है तुमको
कि तुम हर बार नयी कुछ बात कहोगे
जो सौ बात के एक बात होगी
यह हमारे ही दिल का गुबार होगा
कुछ ऐसा कह दो जो
रोटी बेली नहीं जा रही है
पर मुझे स्वाद भूला सा लग रहा है
तालू की पिछली छोर पर बैठा वो स्वाद
लगातार उकसाता रहता है
कि कुछ बोलो
मनमाफिक
बोलो ना!
महिमामंडन
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Friday, October 23, 2009
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Comments: (10)
कौन सा डर है आज मुफीद!!!
इस मुद्दे पर हम रोज़ बैठकें करते हैं...
हम एक लार टपकाती डब्बे में कैद हैं
अपने आई कार्ड से रौब जमाते,
फैंटसी पूरा करते,
जिंसी ताल्लुकात लिखते,
चटाखेदार खबरें छापते;
नहीं थकते हम...
हर दिन छापते/दिखाते हैं
मुद्दे से बड़ी रंगीन तस्वीर
चिकने, लंबे टांगों की
तुम बदसूरत लड़कियों में
हीन-भावना भरते हैं
फिर कुंठा ग्रस्तों को सुझाते है
किसी मसाज, पार्लर का विज्ञापन
बस बने रहो हमारे साथ
हम हर समाधान देते हैं
हम बहाने से बताते हैं
सिलिब्रिटी से अपने प्रगाढ़ रिश्ते...
नेताओं से मधुर मिलन...
हम पत्रकारिता कर रहे हैं...
... जिम्मेदारी से देश बर्बाद कर रहे हैं.
घुसपैठ
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Friday, October 16, 2009
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Comments: (7)
नज़रिया अपना गहरा है
शायद सदियों से ठहरा है
सन्नाटे सुनती नहीं दुनिया
बात पक्की है, ज़माना बहरा है
सराबी* पैकर** बिखरे है पानी में
समंदर में भी सेहरा है
नीमबाज़ आखें, तरन्नुम आवाज़, गुदाज़ बाहें
हर बदन में तुम्हारा चेहरा है
रिश्ते तोड़ कर देता है दिलासा
दोस्ती अब अपना गहरा है
हाँ उसी बूँद की तलब है मुझको
तुम्हारे होंठों पर जो शबनम ठहरा है
क्लाइमेक्स की ऐसी उम्मीद नहीं थी
हालात कहाँ - कहाँ से गुज़रा है
खंडहरों पर मकां बना रहे हो ज़ालिम
वहां अब भी उसका पहरा है
छुप-छुप कर क्यों निकलते हो 'सागर'
किस्से झगडा है, क्यों खतरा है ?
कुछ दिन और बहर से खेल 'सागर'
पुराना वोही तेरा रास्ता है!!!!
*मृगतृष्णा **बिम्ब
वाहियात ख्याल
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Wednesday, October 14, 2009
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Comments: (17)
उसके काबिलियत का कोई सानी नहीं है
यह दीगर है कि आँख में पानी नहीं है
माली हालत देख कर अबके वो घर से भागी
यह कहना गलत है कि उसकी बेटी सयानी नहीं है
कितने पैकर कैद हैं आँखों में तुम्हरे हुस्न के
मुद्दा ये कोई जिक्र-ए- बयानी नहीं है
इन्कलाब करना सबकी फितरत नहीं
ये वो शै है जो खानदानी नहीं है
सुना है पैर पसारने लगा है भाई अपना
वतन के निज़ामों में मगर परेशानी नहीं है!
हर आशिक 'कूल', हसीनाएं 'हॉट' हैं
नज़र में अब कोई मीरा दीवानी नहीं है
चाँद पर सूत काटती रहती है वो बुढिया
नयी नस्लों में ये भोली कहानी नहीं है
तमाम उम्र इसी अफसुर्दगी में जिया 'सागर'
मेरे ज़िन्दगी का अरसे से कोई मानी नहीं है...
मिसरा उला लिए बैठा हूँ जाने कब से
जिंदगी का कोई मिसरा सानी नहीं है.
हालात-ए-हाज़रा
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Tuesday, October 6, 2009
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Comments: (17)
गलियों में रात उतर गया होगा
तभी आमदो-रफ़्त घट गया होगा
रिश्ते मुलाकातों पर निगाहों से तसदीक करते हैं
इस दरम्यां दौलत में क्या इजाफा हुआ होगा
तुम्हारा तसव्वुर, तुम्हारे कांधे सा महकता है
तुम्हें ता-उम्र चांद ने नहलाया होगा
हो सके तो उस तिल को क्वांरा रखना
मेरे चूमे से जो गहरा गया होगा
अफसाने मुहब्बत के मौत में बदले
उसने सय्याद से हाथ मिला लिया होगा
सुना है वो वादी था, अब कमरा बन गया!
मेरी मानो, ईश्क में नाकाम हुआ होगा
मैं मुतमईन होकर खुदकशी का कायल हूं
लोग कहते हैं कि `साला! पगला गया होगा`
जेब भारी हो गए, कद घटने लगे
पेशे में जरूर 'हाँ जी- हाँ जी' मिला दिया होगा
अपनी मराहिल मैं तुम्हें क्या बताऊं मां
तुम कहोगी- तू फिर भूखा सोया होगा!
खबरें कहीं से भी राहतों के नज़र नहीं आते
तो क्या, खुदा शहर से बेवफा हुआ होगा?
पर्दे पर देखते रहिए ब्रेक्रिंग न्यूज़ का सिलसिला
वरना कुरानों वाला कयामत का खदशा होगा
कलम तल्ख़ क्यों हो गई `सागर`
जरूर वाकिआ बदल गया होगा