लोलिता...


राह पर गिराए
तुम्हारी चूड़ी लिए बैठा हूँ
औ' यह चुभती है
इस तरह कि
जैसे आवारा की आँखों में
विकसित होता कमसिन वक्ष

घुंघराले मटमैले बालों से झाड़ो जो धूल
तो ज़र्रे-ज़र्रे पर बिखरा अभ्रक
ना नसीब हुई जिंदगी में ले जाते हैं...

जंग जारी है
चुनौती देती उदंडता
वैचारिक धरातल पर परिपक्व बुत के बीच,
जब स्थिर मन से निकल बचपना
गाँठ बांधती है अल्हड़ता से
इस निकटता में भी इक लडाई तारी है...

...जंग महज़ सही - गलत का नहीं होता

कुछ गैर जरुरी चीजें जिंदगी के साथ
जरुरी हो जाती है लोलिता

यह आदमी नाम का सरांध संबोधन
जो दूर नाले से बहता हुआ आ रहा है
इसे बचाने की जिम्मेदारी तुम्हारी रही है लोलिता

ओ लोलिता...!!!

22 टिप्पणियाँ:

सागर said...

स्त्रीलिंग-पुल्लिंग जिन्हें खटके वे हिंदी व्याकरण की किताब भेजने का खर्चा उठायें .).).)

अपूर्व said...

हम्म !! एड्रेस बताओ :-);-)

रंजू भाटिया said...

जंग महज़ सही - गलत का नहीं होता...पर फिर भी बहस जारी है ....

गौतम राजऋषि said...

अरे, आज वर्षों बाद "ब्लादिमिर नाबोकोव" की खूब याद दिलायी सागर तुमने। याद आ गया वो दसवीं कक्षा में घर वालों से छुपा कर इस विलक्षण बालिका लोलिता से दो-चार होना...

स्त्रीलिंग-पुलिंग तो जब खटकेगा, खटकेगा ही और तुम्हें बताते रहेंगे बेशर्मी से सरे-आम भी और अपूर्व की तरह उदारमना भी न बनूंगा कि व्याकरण की किताब का खर्चा उठाऊँगा...समझे!

कविता कई-कई जगह बाउंस कर गयी सर के ऊपर से। फिरोजशाह कोटला की तरह या तो पिच तैयार नहीं है या फिर मुझे टेनिस एल्बो विकसित हो गया है। फिर से आऊंगा..शायद कुछ अन्य टिप्पणियों से मदद मिले!!!

Satya Vyas said...

कुछ गैर जरुरी चीजें जिंदगी के साथजरुरी हो जाती है

बहुत खूब
जैसे चाकरी , रुटीन , औफिस की पनियाली चाय इत्यादि

सत्य

हरकीरत ' हीर' said...

सागर जी मैंने स्त्रीलिंग पुल्लिंग की गल्तियाँ क्या बता दीं आप तो नाराज़ हो बैठे .....गलत बात है ....और जो मैंने अच्छी रचना की तारीफ की उसका क्या .....???

राह पर गिराए
तुम्हारी चूड़ी लिए बैठा हूँ

की जगह ....

राह में गिरी
तुम्हारी चूड़ी लिए बैठा हूँ ......होता तो कैसा रहता ....??

अपूर्व said...

अभी फिर आया था..कविता को ५-६ बार पढ़ कर..कुछ पंक्तियों पर अपनी जहानत का झूठा रौब झाड़ने (बोले तो अर्थ का अनर्थ करनॆ)..कि गौतम साहब का कमेंट देखा..हिम्मत जवाब दे गयी..छत पर अंडर-आर्म गेंदों पर चौके-छक्के की प्रक्टिस करने वाले हम जैसे..इस पिच को लाइटली लेने की भूल कर रहे थे..सोच रहे थे कि बाल डिकोड कर ली है..अच्छा हुआ कि मुंह फूटने से बच गया..भई कोई कुंजी-गेस-पेपर छपता हो आपकी कविता की संदर्भ सहित व्याख्या वाला..तो बता दो..कुछ समझने की कोशिश करेंगे..वर्ना तो इक्जाम-हाल मे लाइन मे आस-पास बैठे इंटेलिजेंट लोगों के कमेंट ही कापी करेंगे..
;-)

अपूर्व said...

हाँ लोलिता से यह याद रहा कि इसे पढ़ा था..चुरा के पढ़ने की उम्र से कुछ बाद मे (कम-स-कम हमारी नजर मे)..प्रभावित हुए बिना नही रहा..नोबोकोव का और काम भी ढूंढा मगर वैसी बात नजर नही आयी..हाँ एक सवाल खटकता था..इसकी इतनी कंट्रोवर्सियत के पीछे (छिपा के पढ़ने की जरूरत वाली) कि इसकी किस बात से हमें प्राब्लम है..तथाकथित अंतरंग दृश्य हमारी फ़्रैजाइल नैतिकता को खंडित करते हैं क्या..(सरस-सलिल उससे ज्यादा चटपटे कलरफ़ुल विवरण देती थी )...या उस सौतेले बाप मे हमें अपने अंदर छुपी कुंठाओं, विद्रूपताओं का अक्स दिखता है?..नैतिकता और श्रेष्ठता के धवल वस्त्रों मे पोशीदा..!! खैर यहां पर फ़्रायड कुछ-कुछ समझ आये मुझे..फिर श्री एन डी तिवारी जी तसदीक भी कर देते है!!..मगर अपने अंदर के सच को देख पाना, स्वीकार कर पाना बहुत मुश्किल होता है हमारे लिये... लगभग असंभव !..सो चलो..आइने तोड़ देते हैं...और दूसरॊं का सच खोजते हैं..उनकी पगड़ी उछाल कर अपने चरित्र की उज्जवलता के झंडे गाड़ें..देव-संस्कृति के शिखर पर !!..और अभी तो हमारे हांथों मे कई आसान बहाने हैं..राठौर, पंढेर, मनु, शाइनी..और अपने तिवारी जी...हमारे मास्क तो सलामत हैं अभी..खैर!!

..एनीवे!!

Udan Tashtari said...

खटकवाने की कोशिश भी की मगर नहीं खटका/ अब!!


:)


मुझसे किसी ने पूछा
तुम सबको टिप्पणियाँ देते रहते हो,
तुम्हें क्या मिलता है..
मैंने हंस कर कहा:
देना लेना तो व्यापार है..
जो देकर कुछ न मांगे
वो ही तो प्यार हैं.


नव वर्ष की बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.

Ashok Kumar pandey said...

व्याकरण दुरुस्त करना कवि की सबसे ज़रूरी ज़िम्मेदारियों में से एक है भाई। इसे गंभीरता से लें। किताबों का ख़र्च तो उठाना ही होगा-- लेखक, पाठक दोनों को-- बशर्ते वे गंभीर हों।

ईमानदारी से कहूं तो आप कविता को समेट नहीं पाये। कुछ स्पष्ट ही नहीं हुआ…हां धुंधली सी जो तस्वीर बनी वह संभावनायें जगाती है…

नये साल की शुभकामनाओं सहित

Khushdeep Sehgal said...

बोल्डनेस का सागर बनते जा रहे हो भैये...

बाकी मेजर साहब सब कुछ कह चुके हैं...

नया साल आप और आपके परिवार के लिए असीम खुशियां लेकर आए...

जय हिंद...

कुश said...

रुसी कवि 'आंद्रे दस्तास्वोकी' की याद दिला गए भाई.. डूब के लिखेले हो.. डूब के ही पढ़ रेले है..

डॉ .अनुराग said...

ग्यारहवी में थे .तब पहली बार लोलिता से रूबरू हुए थे .छिपते छिपाते ....उम्र के एक मोड़ पर इससे रूबरू हुए .......

"कुछ गैर जरुरी चीजें जिंदगी के साथ
जरुरी हो जाती है लोलिता"

कृत्रिम नैतिकताओं के कई डाइमेंशन खड़े हो जाते है ....अपने अपने मुताबिक ऊँची दीवारे ..जो जुदा लोगो के लिए जुदा ऊंचाई रखती है...


..तुम भी एक हीरा आदमी हो.....

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

नव वर्ष की अशेष कामनाएँ।
आपके सभी बिगड़े काम बन जाएँ।
आपके घर में हो इतना रूपया-पैसा,
रखने की जगह कम पड़े और हमारे घर आएँ।
--------
2009 के ब्लागर्स सम्मान हेतु ऑनलाइन नामांकन
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन के पुरस्कार घोषित।

त्रिपुरारि कुमार शर्मा said...

बहुत बेहतर उपमान का प्रयोग किया है | नये साल में नई सोच के लिए बधाई...!

ओम आर्य said...

आपकी सोंच का सिलसिला किसी बड़ी उंचाई की तरफ अग्रसर है. बनाये रखिये..

अनूप शुक्ल said...

लोलिता कुछ सुनिस? कुछ कहिस? जंग जारी रहे!

abcd said...

:-) पता नहीं कौन है...पता नहीं कैसी है...लेकिन..लगा की...ईमानदार है..

रवि कुमार, रावतभाटा said...

कुछ गैर जरुरी चीजें जिंदगी के साथ
जरुरी हो जाती है...

ऐसा ही कुछ महसूस होता है कभी-कभी...
आपकी कविताओं से गुजरते हुए...

दिगम्बर नासवा said...

कुछ गैर जरुरी
चीजें जिंदगी के साथजरुरी हो जाती है लोलिता ..

लोलिता से रूबरू तो नही हुवे आज तक ....... पर आपकी रचना से रूबरू होना बहुत अच्छा लगता है ...... खुद को पिंजरे में बँधा हुवा छटपटाता सा महसूस होता है आपकी रचना पढ़ कर ....... कोहरा, घुटन, जैसे साँस भी गहरी गहरी लेनी पड़ जाए .... कुछ तो है जो सबसे अलग खड़ा करता है आपको रचनाकारों के बीच ...........देरी से आने की क्षमा .... ६-७ दिनों से नेट के संपर्म में नही था .........

Amrendra Nath Tripathi said...

@ अंतिम पंक्ति
क्या यह लोलिता की विफलता है ?

Dr. Tripat Mehta said...

wah wah !