कविता और मैं


कविता, मुझसे न पूछ
कि कौन है मेरी सबसे पसंदीदा कविता
मुझे किसी एक फलां कविता से परिभाषित करने की कोशिश न कर
झूमने दे मुझे आवारा बनकर इन्हीं गलियों में

गर ये बेवफाई है तो मैं कविता की मुस्तकबिल की खातिर
ये तोहमत भी लूंगा

शायद तुम नहीं जानती कविता
जब तुम्हारे अर्थों का संचार होता है
तो तुम वासना की तरह दौड़ती हो नसों में
प्रेम की तरह अवलंबित होती हो जीवन में
तुम्हारी शिक्षा स्थायित्व दे सकती है
पर तुम ...!!!

नहीं रूको,
मैं इस वक्त एक और कविता पढ़ रहा हूं
मैं गुज़र रहा हूं उसके देहयष्टि से
मैं सीख रहा हूं नए शब्द, संयोजन, शिल्प,
सीख रहा हूं खूबसूरत होना
सीख रहा हूं कि अर्थपूर्ण होना कैसा होता है मानवता के लिए
मैं देख रहा हूं प्रतिबिंबित होना

हां, इस वक्त भी कहीं कोई कवि किसी स्त्री को चूम रहा होगा
कोई शायर प्रसव पीड़ा से गुजर रहा होगा
किसी कमसिन के दिल में समंदर सा ज्वार उमड़ा होगा
किसी के कल्पना के घोड़े दौड़े होंगे
कुम्हार ने गढ़ा होगा चाक पर कच्चा सा कुछ
टांके होंगे कशीदेकार ने ज़री, साड़ी पर
कोई नवयौवना बेपनाह हुस्न लेकर इन्हीं गलियों में निकली होगी
किसी माली करीने से उगाया होगा बगीचे में फूल
किसी किसान ने एक अरब के बाद भी निर्यात के सपने बोए होंगे
ये देखो उस बूढ़े की पेशानी पर यह कैसा पसीना उभरा
क्या कोई घर छोड़ कर निकल रहा है ?

हो न तुम इन सब में!!!

मुझे अश्लील कह लो तो कहो
कि मुझे तुम से उतना ही प्यार है
जितना 'उस' कविता से है

सच है, मैंने हिचकोले खाए हैं तुम्हारे बदन पर
गर्क हुआ हूं तुम्हारे दामन में
जज्ब हुआ हूं तुम्हारी बुनावट में
कि मैं पैदा होता हूं तुममें मर कर

पर, कविता तुम तब भी बनी रहोगी
उतनी ही सर्वनिष्ठ औ' वस्तुनिष्ठ

खौफ़


सोचता हूँ...
एक स्तम्भ बनवा दूँ शहर में!

जहाँ सारी सभ्यताएं अपनी नष्ट होने का विलाप
किया करेंगी
बुद्दिजीवी नरमुंड, हो-हो करेंगे,
वेश्याएं गिटार बजा कर रिझायेंगी हमें;
करेंगी प्रेम में गिरफ्तार,
समंदरी आका उछालेंगे हवा में जुमले,
एक भगदड़ मचेगा
नहीं छलछलायेंगी किसी की आँखें

निर्भीक शहरवासी दफ्तर के बाद
घर जाने को नहीं होंगे उत्साहित
रूह सहवास करेगी दोपहर में
पिता कर लेगा कलेजा ठंडा
माँ कुढ़ना भूल जायेगी
धर्मग्रन्थ पढने पर फतवा होगा
कवितायेँ सच मान ली जाएँगी
लोग सो जाया करेंगे इसे सुनकर
कामचोरों को पुरस्कृत किया जायेगा
कलमकार को भी इसी स्तम्भ पर सर पटक कर मरना होगा.

दोनों सलोने हाथ नहीं होंगे व्याकुल
गोद में आने को
ख्वाहिशों की लहरों को लकवा मार जायेगा
पीर की मज़ार का रास्ता किधर है
बिलबिलाकर सुरंग में घुसते हुए पूछेंगे
आदमी शक्लें!!!

चौपाल लगा करेगी
हुम-हुम करती हवा घुमड़ेगी
उठ्ठेगा भंवर इसी स्तम्भ की जड़ से
धड़ तलक
लील लेगा क्षितिज अनंत

कब्रों से निकलकर लाशें
अपने उपलब्धियों का इनाम पाएंगे
जब कूल्हे गवाही देंगे रिश्तों में, वफाओं के
जब प्यासी आँखों के होंठ शराब मांगेगी
औ'
हम चूल्हे से एक अधजली जवालन निकालकर
शराब में हुडदंग मचा देंगे
ढोलक की थाप पर पढ़ी जाएँगी मर्सिया
और आवाम भोर की अगुआई करेंगे बाहें फैलाकर
तो
बाहें मरोड़ देंगे उसकी

नज़रिया


सौ बातों की एक बात कहूँ.

'मुझे तुम्हारा शरीर चाहिए'

मैं भूल नहीं सका हूँ
वो जिस्मानी खुलूस,
पूरअमन वादी,
कोहरे भरी घाटियाँ,
जानलेवा मौजूं,
हवाई लम्स...

बासी चेहरे पर चस्पां चुम्बन...
बाहों से उड़ते परिंदे
औ' घेरे तोड़ने को
बगावत पर उतारू हुस्न...

जो फ़कत मुझे तबाह करने की योजना लिए
खुदा ने पर तुम्हें ज़मीं पर भेजा
मुझे यकीन है
यह मिलीभगत थी
एक तथाकथित षडयंत्र था

जिनसे मेरी बदनामी मशहूर हुई
मैं उसका होना चाहता हूँ

मैं तुम्हारे नाम पर शहादत चाहता हूँ.

मुझे मालूम है
ये हासिल है
मगरूर बाज़ारों में,
सस्ती गलियों में ,
पॉश इलाकों में,
बिअर बारों में,
चलती कारों में,

मगर दिल जज्बाती बच्चे की मानिंद अड़ा है
"मुझे केवल तुम्हारा ही शरीर चाहिए"

मुझे यह भी गुमान है
जब तुम चालीस साला होगी
तो ऐसे इज़हारों का बुरा नहीं मानोगी

फिलहाल,
इसे प्यार कह लो
या
मेरी बेशर्म-बयानी...

लालसा...


गुलाबी सर्दियों के मखमली सवेरे में,
मुलायम कम्बल में फंसी तुम
बे-इरादा याद आ जाती हो

संसर्ग के बाद चूड़ियों से खेलना बनकर,
कमीज़ पर करीने से की गयी इस्त्री बनकर,
फिर से सम्भोग की ख्याल जगाती,
वो बालाई लम्स बनकर

सर से पावं तलक तुम्हें नापने की लालसा
एक धुर विरोधी छोर पर कैद ये कैदी
महज़ तुम्हें सोचते हुए,
कई साल गुज़ार देता है...

मेरी सारी इन्द्रियां थकी-सी जान पड़ती है...
एक मुद्दत हुई
तुमने शरारत से मेरे कान नहीं काटे
जीने का हौसला देता आलिंगन कहीं खो गया...
तेरे मसामों में मेरे उँगलियों के पोर नहीं थिरके...

तुम्हारी पीठ की आंच से आज भी कटती है मेरी सर्दी
पिघलते मोम से तेरे लबों का स्वाद आता है
सरेशाम झींगुर पायल की आहट देते हैं...

गरम लिबास बना कर पहन रख्खा है तुम्हें.

चलो,
मुझे मानसिक रूप से विछिप्त ही मान लो...
सिगार सुलगा ली मैंने
...तुम्हारी तलब लगने लगी है.