अक्षों का भंवर


रात भर ज़हर में डूबा कर रखता है वो कलम
मन में बसे ख्याल को अपने दिमाग से दूर फैक आता हैं
गोया दिमाग को
एक खोखला कमरा बनाना चाहता हो

क्रॉस वेंटिलेशन कर देता है
हवा शंख से होकर गुजरने लगते हैं..
सांय-सांय की आवाजें आने लगती है
ख्याल को उठाता है फिर ओढ़ लेता है

कांच गिरते हैं पर टूटते नहीं
उनका सिरा मुड़ जाता है
बैरक से बूट पहने सिपाही बाहर आकर
परेड करने लगते हैं...

...गर्द उठता है, घुमड़ने लगता है
भंवर बन कर लील लेता है उसको
सर से लेकर धड़ तलक बाँध दिया जाता है उसे
कुछ आरोप लगते है
वो अपने जगह पर हिलता, थरथराता, काँपता
प्रतिकार करता है

एक खोल है कुछ मिनटों का यह
फिर से सभ्य शहरी बनने में
अब ज्यादा वक़्त नहीं लगता...

4 टिप्पणियाँ:

रवि कुमार, रावतभाटा said...

भाईजान,
आप अपने शब्दों से बुरी तरह झकझोर देने की सामर्थ्य रखते हैं...
यहां कविताओं का अलग ही मज़ा आता है...

ओम आर्य said...

ख्याल से परे ले जाने ख्याल ओ़ढ रहे हैं आजकल आप ...

आपने जो सवाल पूछा है....उसका जबाब 'हाँ' है.

अपूर्व said...

एक खोल है कुछ मिनटों का यह
फिर से सभ्य शहरी बनने में
अब ज्यादा वक़्त नहीं लगता..

आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया..और ऐसा खोया कि अब वापस जाने का रस्ता नही मिल रहा...11K वोल्ट का करेंट है आपकी कलम मे..
..इस रचना के बारे मे इतना ही कहूंगा कि पागल पानी को हवा की गाँठ मे बाँध लिया हो जैसे..
..आपकी लेखनी के बारे मे मेरी उज़बक डिक्शनरी मे एक ही शब्द है..खतरनाक!!

दिगम्बर नासवा said...

SACH MUCH SHABDON KA BHANVAR BUN DIYA HAI AAPNE ........ BAHOOT HI GAHRAAI HAI IS RACNA MEIN ....... KAMAAL HAI AAPKI LEKHNI KA JADOO .....