जान, जानेमन, प्यारी, प्रिये!


उम्र कुछ ऐसे ही बीती
जैसे उफ़क पर नुमाया होता है
पनियाला अंडाकार सा
शून्य
जिसकी हिलती-डुलती परछाई में
तुम्हारी सूरत दिखाई दे जाती है

कई मलालों में एक
छोटा सा दुःख यह भी है कि
तुम्हें तुम्हारे असली नाम से तो दूर
शोख उपनामों से भी न पुकार सका

जान, जानेमन, प्यारी, प्रिये!!!
यह नाम भी अब दुनियादार हो गए...

इनका प्रयोग अब
दफ्तर के लोगों को समझाने में करता हूँ.

1 टिप्पणियाँ:

Amit K Sagar said...

बहुत सुन्दर. एक अलग ढंग से. लिखते रहिये.