सीखचों में बंद एक युग...

उसने समझा लिया होगा अब खुद को
और...
माँ को भी अब मान जाना चाहिए
लेकिन
वो है
कि ज़िद पर अड़ी है

...उन्नीस बरस में तो
उसे आदत हो ही जानी चाहिए...

दुआओं में भी
जाने क्या मांगता होगा वो...

भूल गया होगा वो कि
घोसलों में शोर बरपा करता है
कोई पापा कहकर बुलाये तो कैसा लगता है
बहन के हाथ पर लगी मेहदी
देख क्या खुशी मिलती है...

कि इस मौसम में अमलतास झुमके पहनते थे...
मुसलसल फूकों से चूल्हा कैसे जलता था...
कि माँ रोटी के पोरों को कैसे भरती थी...
हिमालय पर की प्रथम रश्मि कैसी थी...
सरसों के खेत में...
कितनी ज़द्दोजेहेद से गुजरी थी
सलमा अपनी कलाई छुडाने में...

या फिर
पत्नी मांग भरते वक़्त
पलट कर
पीछे कैसे देखती थी...
अम्मा झूठ बोलकर अब्बू से कैसे बचाती थी...

अब तो
उस बुढिया का आँचल भी लानतें भेजता होगा
जिसके दाग उन्नीस बरस से वो सोख रहा है...

जाना होगा तो
बस इतना कि...
...फौजी ने फौजी को पैदा किया।



(...ये लाइनें मैंने पाकिस्तान के जेल में पिछले १९ सालों से बंद सरबजीत सिंह के लिए लिखी हैं... और उनके ही जैसे कई अन्य लड़ाके जो ज्ञात और गुमनाम हैं उन्हें समर्पित है... हम दुआ करते है कि सरबजीत और उनके साथियों को इस मातृभूमि को चूमने का मौका फिर से मिले...)

2 टिप्पणियाँ:

डॉ .अनुराग said...

नहीं मालूम कैसे जज्बात में आकर लिखी.है.....एक बैठक में या टुकडो टुकडो में .....लेकिन एक दम दिल से लिखी है ..ओर दिल में उतरी है...कई बार लौटना होगा इस कविता पर मुझे .....शुक्रिया दोस्त इस कविता को दने के लिए..

Reshu said...

grate. Mindblowing jyada samjh main to nahi aaya par jo bhi samjha wo kabile taarif hai.lik se hatkar likha hai.