हमारा लम्स

शिफर से आगाज़ था अपना
तमाम परेशानियाँ थी,
थक्के-थक्के उलझनें थी
पाँव-पाँव पत्थर थे

एक सुई नहीं थी कहीं
दूर-दूर दिखता था सबकुछ
...फ़कत चंद ख्वाब थे रोशन
तुम्हारे...

मैं बेमन से चलता रहा...
तुम्हारी खातिर
... और तुमने दिखाया दिन सम्मान का

किसी की अनमनी सी नींद जागी
तो कई संभावनाएं फूटीं
वो झुरियां कुछ खिचीं
साथ के नयी कोपलें खिले

जो कदम तुमने डरे-सहमे से रखे थे
उनमें अब धमक सुनायी देती है
जो गुज़श्ता बरस नहीं थे

तुमने ठानी,
तुमने किया
... और दूर कहीं नेपोलियन का कहा सच हो गया

हमारे लिए;
महज़ कुछ साल गुज़रे हैं...
फिर सदियाँ गुजरेंगी

आओ आमीन कहें मिलकर की-
...हमारा लम्स कायम रहे

4 टिप्पणियाँ:

ओम आर्य said...

ये प्यारा लम्स है भाई.......आमीन

डॉ .अनुराग said...

क्या लम्स है.....यूँ ही चले आये लगा...कुछ मिस कर रहे थे .....तुम्हारी पहली कविता भी पढ़ी...लगा नहीं के ये शौंकिया लेखन है .ये तो तप तपाया ठेठ लेखन है ..खूब मांजा हुआ......दिलचस्प....ओर बेहतरीन....

Reshu said...

Hamara lams
jo ki maine phar diya.
par us din ko bhul kar yahi dua karte hain ki hamara lams kayam rahe.

Reshu said...

Hamara lams
jo ki maine phar diya.
par us din ko bhul kar yahi dua karte hain ki hamara lams kayam rahe.